________________
विचार प्रवाह
१९९
हो सकता है, किसी तरह का शारीरिक सुख प्राप्त कर सकता है । इन धर्मों के पालने से तो केवल मानसिक सुख मिल सकता है और जो आत्मा में विश्वास रखते हैं, उनकी आत्मा को सुख प्राप्त हो सकता है। इसलिए यह समझना कि स्वराज्य हमारे अहिंसाधर्म का नतीजा है, बहुत बड़ी भूल है ।
मैं फिर दोबारा कहता हूं कि मैं अहिंसा का निरादर नहीं कर रहा । मैं अहिंसा का पुजारी हूं । मैं तो केवल यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा से जिस कार्य की आशा की जाती है, वह गलत है। निषेध संकल्प कारण
भारतीय संस्कृति के विकास में संयम और संकल्प का बहुत बड़ा योग रहा है। उनके साथ निषेध का गहरा सम्बन्ध है । अणुव्रत-आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तब कई चिन्तक व्यक्ति निषेध ही निषेध में बल नहीं देख पाते थे। कुछ लोग प्रतिज्ञा मात्र के प्रति सहमत नहीं थे । किन्तु जब राष्ट्रीय एकता सम्मेलन ने सात निषेध स्वीकृत किए तब लगा कि निषेध-संकल्प का स्वर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिध्वनित हो रहा है। अविच्छिन्न विचार
राष्ट्रीय एकता सम्मेलन ने सर्व-संघ के सुझाव पर एक प्रतिज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करने का अनुरोध किया। उसके अनुसार देश के प्रत्येक वयस्क से निम्न प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने को कहा जाएगा-'भारत का नागरिक होने के नाते मै सुसंस्कृत समाज के सार्वभौम सिद्धान्तों अर्थात् नागरिकों, दलों, संस्थाओं और संगठनों के बीच उत्पन्न विवादों को शान्तिपूर्ण तरीकों से निपटाने के सिद्धान्तों में विश्वास रखता हूं तथा एकता और देश की अखंडता के सम्मुख आए खतरे को ध्यान में रखते हुए प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं विवादों को, चाहे वे मेरे पड़ोस में हों अथवा देश के किसी और हिस्से में, सुलझाने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लूंगा।'
आचार्यश्री तुलसी के धवल-समारोह के प्रथम चरण का आयोजन था । उस अवसर पर तीन प्रतिज्ञाएं दिलवाई गई थीं। उनमें एक थी-'मैं साम्प्रदायिक, भाषायी तथा जातीय आधार पर किसी प्रकार की घृणा नहीं फैलाऊंगा।'
देश-काल की विच्छिन्नता में भी विचार किस प्रकार अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित होते हैं, यह सचमुच आश्चर्य का विषय है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org