Book Title: Samasya ko Dekhna Sikhe
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 214
________________ चिरसत्यों की अनुस्यूति सत्य के दो रूप होते हैं—वस्तु-सत्य और व्यवहार सत्य । व्यवहार सत्य बहुरूपी होता है। वस्तु सत्य का रूप चिर पुराण होता है । वह देशकाल से व्यवच्छिन्न नहीं होता । जो देशकाल से व्यवच्छिन्न नहीं होता वही वस्तु-सत्य होता है । उसी के कुछ उदाहरण हैंलघिमा सिद्धि १, योगिक अनुभूति है कि लघिमा सिद्धि को प्राप्त करने वाला योगी जैसे भूमि पर खड़ा रहता है वैसे ही भाले की नोक पर खड़ा रह सकता है । भूमि और भाले की नोक में तभी अन्तर होता है, जब भार होता है । योगी प्राण-विजय द्वारा भारमुक्त हो जाता है । अतः उसके लिए भूमि और भाले की नोक में कोई अन्तर नहीं होता । कोशा वेश्या सरसों की राशि पर नृत्य करती और वह राशि अस्त-व्यस्त नहीं होती थी । भार-मुक्ति का यह विचित्र प्रयोग था । भूमि के वातावरण में भार-मुक्ति साधना-लभ्य होती है । अंतरिक्ष में वह सहज ही प्राप्त हो जाती है | रूसी वैज्ञानिक जियोलकोव्स्की के शब्दों में- “अन्तरिक्ष में कोई भी वस्तु दबाव नहीं डालती । यदि मैं पृथ्वी पर सूई की नोक पर खड़ा हो जाऊं तो मेरा पैर सूई के अन्दर घुस जाएगा। लेकिन यदि ऐसा अंतरिक्ष में हो तो मेरा पैर सूई पर इस तरह खड़ा रहेगा, मानो मैं पृथ्वी पर खड़ा हूं।" समय की गति २. भगवान महावीर ने कहा था— 'पृथ्वी के असंख्य योजन की ऊंचाई पर देवों का एक मुहूर्त बीतता, उतने में यहां हज़ारों वर्ष बीत जाते हैं।' आइन्स्टीन ने इसी सत्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है- 'सूरज को भेजी जाने वाली एक घड़ी पृथ्वी की तुलना में धीमी गति से चलेगी।' अंतरिक्ष-यात्रा के समय भी यही सत्य उद्भवित हुआ था । डॉ० बारिसल्कोसोवस्की ने सोवियत अर्थिक पत्रिका में लिखा था—'अंतरिक्ष में पृथ्वी की अपेक्षा समय बहुत धीमी गति से बढ़ता है ।' परमाणुवाद का नियम ३. परमाणुवाद के अनुसार एक आकाश-प्रदेश में एक परमाणु समा सकता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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