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नैतिक शिक्षा का उद्देश्य
पहले जानो, फिर करो-भारतीय चिन्तन का यह चिरन्तन निष्कर्ष है । करने के बाद जानने का द्वार बन्द नहीं होता । फिर जानो, फिर करो- यह द्वार सदा खुला रहता है। जानो-करो, फिर जानो, फिर करो-इस मार्ग पर चलकर ही मनुष्य विकास की मेखला तक पहुँचा है।
जो विषय हमें ज्ञात नहीं होता, उसके आचरण में हमारा आकर्षण भी नहीं होता। जो आदमी आम के स्वाद को नहीं जानता, वह उसे खाने को कभी नहीं ललचाता । एक आदमी ने बादाम और चिलगोझ नहीं देखे थे । वे छीलकर दूध पर डाले हुए थे। उसने लटें समझ कर दूध नहीं पिया | उसके अज्ञान ने ही उसे दूध नहीं पीने दिया । शिक्षा का उद्देश्य
अज्ञान सबसे बड़ी बुराई है । क्रोध करना बुरा है । क्या उसके मूल में अज्ञान नहीं है ? यदि क्रोध के परिणामों का सही-सही ज्ञान हो तो आदमी क्रोध नहीं कर सकता।
यथार्थ को जानना बुराई को चुनौती दे डालना है । ज्ञान को पुष्ट करना बुराई के मूल को उखड़ डालना है । शिक्षा का स्वयम्भू उद्देश्य है अज्ञात को ज्ञात करना । हेय का वर्जन और उपादेय का आचरण—ये दोनों कार्य ज्ञान के उत्तरकाल में होते हैं । जिसे नैतिक और अनैतिक व्यवहार व उसके परिणामों का ज्ञान नहीं होता, वह किस आधार पर यह निर्णय करेगा कि उसे नैतिक व्यवहार करना चाहिए और अनैतिक व्यवहार नहीं करना चाहिए। नैतिक शिक्षा क्यों ?
नैतिकता का ज्ञान होने पर सब आदमी नैतिक बन जाते हैं, यह अनिवार्यता नहीं है। किन्तु इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि नैतिकता का ज्ञान होने पर लोग नैतिक बन सकते हैं | नैतिक शिक्षा का यही प्रबल आधार है ।
कुछ शिक्षाविद् नैतिक शिक्षा को आवश्यक नहीं मानते । उनके मतानुसार नैतिकता सामाजिक व्यवहार से फलित होती है । अभिभावक और अध्यापक जैसा आचरण करते हैं वैसा ही आचरण करने की प्रेरणा विद्यार्थी को मिलती है । विद्यार्थी को शिक्षा एक प्रकार की मिलेगी और व्यवहार दूसरी प्रकार का मिलेगा, इससे उनके मन पर विरोधी प्रतिक्रिया
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