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कला और कलाकार
बहुत अच्छा होता मैं कलाकार होता और कला पर प्रकाश डालता । पर मैं कलाकार नहीं हूं, साधक हूं | साधक भी संयम का हूं, कला का नहीं । मैं व्यापक दृष्टि से सोचता हूं, तो पाता हूं कि जिस व्यक्ति के पास वाणी है, हाथ है, अँगुली है, पैर है, शरीर के अवयव हैं, वह कलाकार है । इस परिभाषा में कौन कलाकर नहीं है ? हर व्यक्ति कलाकार है। मैं भी कलाकार हूं। आत्मख्यापन की प्रवृत्ति
मनुष्य में अभिव्यक्ति या आत्म-ख्यापन की प्रवृत्ति आदिकाल से रही है । वह अव्यक्त से व्यक्त होना चाहता है । वह नहीं होता तो वाणी का विकास नहीं होता । यदि वह नहीं होता तो मनुष्य का चिन्तन वाणी के द्वारा प्रवाहित नहीं होता । अव्यक्त का व्यक्तीकरण और सूक्ष्म का स्थूलीकरण क्या कला नहीं है ?
उपनिषद् के अनुसार सृष्टि का आदि-बीज कला है । ब्रह्म के मन में आया, मैं व्यक्त होऊं । वह नाम और रूप के माध्यम से व्यक्त हुआ । सृष्टि और क्या है ? नाम
और रूप की ही तो सृष्टि है । जिसमें अभिव्यक्ति का भाव हो और जो उसे व्यक्त करना जानता हो, वही कलाकर है । विकास का लक्षण
कलाकार पहले रेखाएं खींचता है, फिर परिष्कार करता है। कभी-कभी परिष्कार में मूलरूप ही बदल जाता है । मकान का परिष्कार होता है । परिष्कार विकास का लक्षण है।
कला में हाथ, अंगुली, पैर, इन्द्रिय और शरीर का प्रयोग होता है । भगवान् ने हमें पाठ दिया कि हाथ का संयम करो । पैर का संयम करो । वाणी का संयम करो । इन्द्रियों का संयम करो।
कला का सूत्र है, आँख खोलकर देखो । संयम का मूल सूत्र है, आँख मूंदकर देखो | कला की पृष्ठभूमि में अभिव्यक्ति है । संयम अनभिव्यक्ति की ओर प्रेरित करता है। दोनों में सामंजस्य प्रतीत नहीं होता। हर वस्तु में विरोधी युगल होते हैं । एक परमाणु में भी विरोधी युगल हैं । जिसमें ये नहीं होते, उसका अस्तित्व नहीं होता।
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