Book Title: Samasya ko Dekhna Sikhe
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 193
________________ स्वतन्त्रता और आत्मानुशासन कितना मधुर है यह स्वतन्त्रता शब्द । एक तोता पेड़ की टहनी पर बैठकर जिस खुशी से झूमता है, वह उसी खुशी से सोने के पिंजड़े में नहीं झूमता । पिंजड़ा आखिर पिंजड़ा ही है, भले ही वह लोहे का हो या सोने का । स्वतन्त्रता की मादकता का एक कण परतन्त्रता के सागर से अधिक मूल्यवान और प्राणदायी होता है । परन्तु आश्चर्य है कि स्वतन्त्रता के पचास वर्षों के बाद भी हिन्दुस्तान पूरी मादकता से नहीं झूम रहा है । ऐसा लगता है कि वह राजनीति की परतन्त्रता से मुक्त होकर भी मानसिक परतन्त्रता से मुक्त नहीं है । वाणी की स्वतन्त्रता उसे प्राप्त है, पर वाणी का संयम उसे प्राप्त नहीं है । लेखन की स्वतन्त्रता उसकी निर्बाध है पर लेखनी का संयम उसे ज्ञात नहीं है । उसके विचारों की अभिव्यक्ति पर कोई रोक नहीं लगा सकता पर उसे अपने-आप पर रोक लगाना भी पसन्द नहीं है। इस स्वतन्त्रता का अर्थ है मानसिक परतन्त्रता का उदय । जनतंत्र का मूल आधार है स्वतन्त्रता और उसका मूल आधार है व्यक्ति का आत्मानुशासन । जब कोई व्यक्ति अपने-आप पर अपना नियंत्रण रख सकता है, तभी वह स्वतन्त्रता की लौ प्रज्वलित कर सकता है। अधिनायकता के युग में भय और आतंक का राज्य होता है, इसलिए व्यक्ति के आत्मानुशासन का विशेष मूल्य नहीं होता । जनतंत्र के युग में अभय का राज्य होता है, इसलिए उसमें आत्मानुशासन का मूल्य बहुत बढ़ जाता है । प्रश्न है आत्मानुशासन का हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है । उसके नागरिकों का आत्मानुशासन कैसा है, इस प्रश्न पर चाहे-अनचाहे दृष्टि जा टिकती है । इसका उत्तर जो मिलता है, वह सन्तोष नहीं देता। शासनतंत्र के प्रमुख लोगों में सर्वाधिक आत्मानुशासन होना चाहिए पर वह नहीं है । वे अपने पद का लाभ भी उठाते हैं । पक्षपात की भी उनमें कमी नहीं है । अपने कृपापात्रों के लिए वे कुबेर हैं तो अप्रियजनों के लिए अनुदार भी कम नहीं हैं । वे शासनतंत्र संभालते हैं जनता की भलाई के लिए और उनका संघर्ष चलता है सदा कुर्सी की सुरक्षा के लिए । आर्थिक घोटालों के अनेक अरोप उन पर लगाए जाते हैं और वे प्रमाणित भी हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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