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जीवन-विकास के सूत्र
समानता मेरा अस्तित्व मुझे प्रिय है। किन्तु 'मैं' पर जैसा मेरा अधिकार है, वैसा अस्तित्व पर नहीं है । मुझसे जो भिन्न है, उसका भी अस्तित्व है और वह उसे उतना ही प्रिय है। जितना कि मेरा अस्तित्व मुझे प्रिय है । बाहरी उपकरणों की दृष्टि से हम भिन्न भी हो सकते हैं किन्तु अस्तित्व की श्रृंखला में हम सब समान हैं ।
शरीर, भाषा, भौगोलिक सीमाएं,सम्प्रदाय, जाति-ये सब समानता के समर्थक नहीं हैं किन्तु इनमें प्राण-संचार चैतन्य से होता है और उसके जगत् में हम सब समान हैं; हमारे मन में असमानता के संस्कार अधिक तीव्र हैं । हमारी इन्द्रियां बाहर की ओर झांकती हैं और जो बाहर है, वह सब असमान है । असमानता के भाव से प्रेरित होकर हम अपने ही जैसे लोगों के साथ अन्याय करते हैं । हमारी न्याय-बुद्धि तभी जागृत हो सकती है, जब हम समानता की धारा को अविरल प्रवाहित करें । लोकतंत्र समानता की प्रयोगभूमि है । समान अधिकार का सिद्धान्त दार्शनिक समानता का व्यावहारिक रूप है । लोकतंत्र की सफलता के लिए यह अपेक्षित है कि उसके नागरिकों में समानता के प्रति आस्था हो । स्वतन्त्रता
कोई आदमी अन्याय करता है, इसका अर्थ है-- वह दूसरे के अधिकार का अपहरण करता है । कोई दूसरे के अधिकार का अपहरण करता है, इसका अर्थ हैवह उसे अपने तंत्र में रखना चाहता है । अपने तंत्र में रखने का अर्थ है उसे वह अपनेजैसा नहीं मानता।
बुद्धि और कर्मजा-शक्ति की विविधता होती है । बुद्धिमान् और समर्थ व्यक्ति मन्दबुद्धि और अक्षम व्यक्तियों को शासित करता है । यह सर्वथा अनुचित भी नहीं है। उनका हित-सम्पादन करने के लिए यदि वह ऐसा करता है, तो कोई तर्क नहीं कि उसे अनुपादेय कहा जाए । यदि वह अपना हित-साधन के लिए उन्हें शासित करता है तो वह सामनता की आधारशिला को जर्जरित करता है । दूसरों की स्वतंत्रता में अमिट विश्वास हो तो क्या कोई व्यक्ति अन्याय कर सकता है ? स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा
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