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विसर्जन है ममत्व - त्याग
एक व्यक्ति ने परिग्रह का अल्पीकरण करना चाहा क्योकि परिग्रह मोक्ष का बाधक है । परिग्रह की सीमा निर्धारित की - 'एक लाख रुपये से ज्यादा नहीं रखूंगा ।' व्यापार में जब धन अधिक बढ़ गया तो उसने उस अतिरिक्त धन को अपने लड़कों के नाम से कर दिया । लेकिन उसका विसर्जन नहीं किया। जब तक विसर्जन नहीं किया जाता, उससे ममत्व नहीं हटता । विसर्जन के बिना संग्रह के प्रति आकर्षण भी कम नहीं होता । जब तक धन कमाने के प्रति आकर्षण बना रहता है तब तक ममत्व की भावना घटती नहीं, बढ़ती है । जहां ममत्व है वहां शोषण आदि वृत्तियां पनपती हैं। शोषण ममत्वत्याग का सबल शस्त्र है ।
समस्या को देखना सीखें
यम और नियम
हमारे आचार्यों ने यम और नियम का भेद दिखाते हुए कहा - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये पांच यम । ये प्रतिदिन के लिए अनिवार्य होने चाहिए । एक व्यक्ति अपरिग्रही बनता है, फिर वही दो घंटे के बाद परिग्रही बने, यह नहीं हो सकता । एक व्यक्ति परिग्रह को छोड़ साधु बनता है तो क्या वह दो घंटे के बाद लाख रुपया पास में रख लेगा ? नहीं । यम जीवन में अनिवार्य रूप से आते हैं । वे यावज्जीवन के लिए होते हैं । उनमें काल की सीमा नहीं होती ।
प्रधान है नियम
नियम कादाचित्क होते हैं, आवश्यकता के अनुसार किये जाते हैं। एक व्यक्ति आज उपवास करता है । कल वह नहीं भी करता । पूजा करनेवाला एक घंटे तक पूजा करता है परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता कि चौबीस घंटे पूजा ही करता रहे। नियम देश, काल और मर्यादा-सापेक्ष होते हैं । परन्तु आज विपरीत क्रम हो गया है। नियम प्रधान बन गया है और यम की आवश्यकता भी नहीं रह गई है। नियम के आधार पर चलनेवाला जिस कुल में जन्मता है वैसा ही अपना आचरण बना लेता है । मैंने देखा, दो-चार वर्ष के बच्चे के सिर पर अमुक प्रकार का टीका लगा हुआ था । बच्चा क्या जानता है ! मातापिता ने अपने धर्म का प्रतीक उसको बना दिया । आज धर्म आनुवंशिक रूप में पाला जाता है । धर्म में जो परिवर्तन की क्षमता थी वह आज नहीं है । भगवान् महावीर, बुद्ध और कृष्ण ने क्रान्ति की थी। आज वही परमपरा में परिवर्तित हो गई है ।
हृदय परिवर्तन और व्यवस्था
गुरुदेव ने कहा था- 'साधारण जनता के लिए हृदय परिवर्तन के साथ व्यवस्थापरिवर्तन भी आवश्यक होता है।' महायान का प्रवेश होते ही सामूहिकता प्रबल हो गई । ऐतिहासिक दृष्टि से महायान सबसे पहला था जिसने सामूहिकता पर बल दिया । उसके
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