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अनुभूति की वेदी पर संयम का प्रतिष्ठान
एक शरीर है और इन्द्रियां पांच हैं। इनके अतिरिक्त एक मन भी है जो हमारी इन्द्रियों को संचालित करता है । ये छह सम्पर्क-सूत्र हमें बाह्य जगत् से जोड़े हुए हैं। यदि ये सम्पर्क-सूत्र नहीं होते तो न कोई देखने वाला होता और न कुछ दृश्य, न कोई सूंघने वाला होता और न कोई घ्राण । इन्द्रियों और मन के अभाव में बाह्य से सम्पर्क नहीं रहता और सब अपने आप में होते । इन्द्रियों और मन ने ऐसा धागा प्रस्तुत किया कि आदमी जुड़ गया । सूई धागे को लेकर चलती है और दो टुकड़ों को जोड़ती है । इन्द्रियां भी सूई का काम करती हैं । आज अकेला जैसा कुछ भी नहीं है । जहां दो होते हैं वहां भय प्रारम्भ हो जाता है किन्तु कठिनाई यह है कि एकाकीपन में मन नहीं लगता । उपनिषद् में कहा- “स एकाकी नैव रेमे ।" भगवान का भी अकेले मन नहीं लगा इसलिए "एकोऽहम् बहुस्याम्' की भावना से सृष्टि -रचना की गई । इसलिए जहां दो हैं, वहां संयम की आवश्यकता है । इन्द्रियों का स्वभाव
संयम से सुरक्षा होती है । स्वयं अपनी सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा दोनों ही इससे प्राप्त होती हैं । जहां व्यक्ति दूसरों के साथ अपना उचित सामंजस्य नहीं बना पाता, वहां व्यक्ति का व्यक्तित्व खंडित हो जाता है । इन्द्रियों का स्वभाव है, संयम से विमुख जाना और हमारा लक्ष्य है, संयम की ओर अग्रसर होना । आज मनुष्य की वाणी में संयम नहीं, स्वाद का संयम नहीं, दृष्टि का संयम नहीं और श्रवण आदि का भी संयम नहीं। ऐसे भोजनभट्ट आपको मिलेंगे, जो जीने के लिए नहीं खाते, केवल खाने के जीते हैं । शास्त्रों में कहा है
“आहारार्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं, स्यादाहारः प्राणसंधारणााय | प्राणा धार्याः तत्व जिज्ञासनाय, तत्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ।।"
-'आहार के लिए भी वही कर्म करना चाहिए जो निन्दनीय नहीं हो । आहार भी प्राणों को धारण करने के लिए ही किया जाना चाहिए | परन्तु आज के विपरीत देखने में आता है।
- एक चौबेजी के पुत्र ने अपने पिता से कहा- 'पिताजी ! आज तो बड़ी दुविधा
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