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पूंजीवाद और अणुव्रत
पूंजी साथ जब से वाद जुड़ा है तब से विकृतियां आयी हैं। वैसे पूंजी दुनिया की सबसे बड़ी शक्तियों में से एक है। जीवन व्यवहार में कुछ ऐसी शक्तियां होती हैं, जिनके आधार पर व्यक्ति जीता है। जीवन में उन शक्तियों की नितान्त आवश्यकता होती है । शक्तिहीन को दुनिया में कोई भी नहीं चाहता, उसे आदर नहीं मिलता | आग जलती है तो उस पर सबका ध्यान रहता है लेकिन बुझी आग पर छोटा बालक भी पैर रखकर निकल जाता है । जलती आग में तेज है इसलिए उसके प्रति आदर है किन्तु राख के प्रति नहीं । इसलिए महाभारत में विपुला ने अपने पुत्र से कहा- “पुत्र ! तुम प्रज्वलित अग्नि की तरह तेज बनकर भले एक मुहर्त के लिए जीओ, यह अच्छा है किन्तु धुआं बनकर चिरकाल तक जीना अच्छा नहीं ।"
आकर्षण पर टिका है संसार
जहां शक्ति है वहां आकर्षण है, वहीं झुकाव होता है । यह सारा संसार आकर्षण के कारण ही टिके हुए हैं अन्यथा उथल-पुथल और प्रलय मच जाता | धन दुनिया की बड़ी शक्ति है, इससे जीवन की व्यवस्था बनती है, अन्यथा गड़बड़ा जाती है । भूख लगने पर रोटी चाहिए, दूध-फल आदि की आवश्यकता है । वस्त्र, मकान आदि की जरूरत है और इन सबका क्रय विक्रय पैसे के आधार पर होता है । इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं कि पूंजी और धन इन सब वस्तुओं की प्राप्ति के लिए आवश्यक होता है । इसीलिए संस्कृत कवियों ने 'सर्वेगुणा कांचनमाश्रयन्ति' तक कह दिया । जिसने पूंजी को ठुकराया
और त्यागा, वह भी पैसों के आकर्षण में आ जाता है । पूंजी और अर्थ का महत्व मानना ही होगा।
आज पूंजीवाद शब्द विकृत हो गया है । पूंजीवाद से बोध होने लगा पिछड़ेपन का । पूंजीवाद खून चूसने और शोषण करने का प्रतीक बन गया । पूंजी बुरी नहीं, वाद बुरा है । इसी वाद से बुराई होती है। पूंजीवाद भी शब्दों के जाल तरह विकृत बना है। बीत गया निधान का युग
अणुव्रत अर्थात् संयमन । सब चीजों के साथ साथ पूंजी और पैसों का भी संयमन
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