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समस्या को देखना सीखें
है । वह भेड़िया और जंगली पशु भी नहीं है, जो भूखा होकर किसी पर झपट पड़े। फिर वह ऐसा क्यों करता है ? वह परिग्रह के कारण झपटता है। जिसके हाथ में परिग्रह है, यह सब कुछ कर सकता है— यह विचार इतना बढ़ा कि उसने मनुष्य में मतिभ्रम पैदा कर दिया है। उनकी सारी आस्था इस विचार के कारण हट जाती है। इसलिए क्राइस्ट ने कहा- 'ऊँट का सूई की नोक से निकलना सम्भव है किन्तु धनी व्यक्ति का स्वर्ग में प्रवेश असम्भव है ।'
व्रत का चिन्तन
महावीर, कृष्ण, बुद्ध, ईसा किसी का भी हो, यह विचार सही था कि परिग्रह के प्रति आसक्ति नहीं हो। यह था व्रत का चिन्तन । परिग्रह रखने का अधिकार किसी को नहीं है, यह आज के अधिकार की भाषा है। जहां राजनीति है वहां अधिकार की भाषा होगी । अपरिग्रह की बात पाप और धर्म की भाषा में कही गई थी । यदि वह पुरानी बन गई तो उसे युगानुकूल रखना होगा । अध्यात्म ने कहा कि परिग्रह और संग्रह नहीं करें । उसने जीवन की अनिवार्य आवश्यताओं पर रोक नहीं लगाई। यदि जीवन की आवश्यकताओं पर रोक लगाई जाती तो हिन्दुस्तान भिखारियों का देश होता; यद्यपि कुछ लोगों ने धर्म के नाम पर भिखारीपन को बढ़ावा दिया है, भिखारी बढ़ाये हैं ।
जिसके पास दो हाथ और दस अंगुलियां हैं, उसे किसी अन्य से कुछ नहीं चाहिए । सब रचनाएं इन दस अंगुलियों से ही टपकती हैं। चित्र, काव्य, निर्माण और बीज सब इन दो हाथों की दस अंगुलियों की ही बात हैं । यह पुरुषार्थ का सिद्धान्त था, जिसके आधार पर यह सिद्धान्त आया— जो पुरुषार्थ करो उसमें दूसरों का हिस्सा मत लो। यह अचौर्य की परिभाषा है। दूसरों की चीज़ उठाना ही चोरी नहीं है बल्कि भागवत में कहा है— 'जितने से व्यक्ति का पेट भरता है उतना ही उसका स्वत्व है। उतने का ही वह अधिकारी है । अधिक संग्रह करने वाला चोर है और वह दण्ड का भागी है ।' शायद इतना कठोर आदेश मार्क्स और लेनिन ने भी नहीं दिया ।
प्राकृतिक चिकित्सा है अणुव्रत
दूसरों को प्राप्त होने वाले तत्त्व से रोक देने की प्रवृत्ति ठीक नहीं । तुंगभद्रा को बांधना ठीक हो सकता है लेकिन यदि नहरें नहीं निकाली जाएं तो वह प्रलय मचा सकता है। धन की प्रक्रिया क्या इससे भिन्न हो सकती है ? विसर्जन की प्रणाली से रहित संग्रह क्या खतरनाक नहीं होता ? पूंजीवाद के संशोधन के प्रयास हो रहे हैं लेकिन गुत्थी सुलझी नहीं है । आर्थिक कठिनाइयों से मनुष्य यन्त्र बन गया । होना यह चाहिए कि संग्रह भी न हो और मनुष्य का स्वतन्त्र अस्तित्व भी रहे, उसकी इकाई बनी रहे । इस बिन्दु पर अणुव्रत की उपयोगिता सामने आती है। हृदय परिवर्तन के द्वारा जो संग्रह की समस्या सुलझेगी वह दोष से मुक्त होगी । यह अणुव्रत एलोपैथिक चिकित्सा नहीं है, जो रोग
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