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राग और विराग का दर्शन
विषययेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि ।
योगे सात्म्यमदृष्टेडिप, स्वामिन्निदमलौकिकम् ।। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा- भगवान् ! आपकी बात अलौकिक है, लौकिक नहीं है, लोकोत्तर है । आपके जो पुराने साथी हैं। उनके प्रति आपका विराग है । पांच इन्द्रियों के विषय आपके चिर सहचर हैं, फिर भी आपका उनके प्रति अनुराग नहीं है । योग के प्रति आपका अनुराग है । आपने योग को कभी देखा ही नहीं । उसके साथ अनुराग ही नहीं, ऐकास्य है | यह आपकी अलौकिकता है | राग से चलता है समाज
.. परमात्मा की चर्चा अलौकिकता की चर्चा है । वहां अलौकिता की सीमा समाप्त हो जाती है, एक नई सीमा शुरू हो जाती है । वह एक नया देश है । वहां जाने वाला कोई भी व्यक्ति वापस यहां नहीं आता । परमात्मा अलौकिक होता है | समाज लौकिक चेतना के आधार पर चलता है । लौकिक चेतना का अर्थ है-- रागात्मक चेतना | समाज राग से चलता है । जितने साहित्यकार हुए हैं, उन्होंने स्वीकार किया है— समाज का मुख्य तत्त्व है- रागात्मकता । यद रागात्मकता नहीं है तो कविता कविता नहीं है, साहित्य साहित्य नहीं है, नाटक नाटक नहीं है । नाटक, कविता, उपन्यास, साहित्य- इन सबका प्राण तत्व है— रागात्मकता । रागात्मकता के बिना सामाजिक जीवन सूना-सूना लगता है। जब हम समाज से व्यक्ति के स्तर पर आते हैं तब एक नया तत्व प्रस्फुटित होता है । वैयक्तिक जीवन का मूल तत्त्व है- विराग | समाज का अर्थ है रागात्मक चेतना और व्यक्ति का अर्थ है विराग चेतना । राग लौकिक है और विराग अलौकिक ।
हमारी दुनिया विचित्र है । हम जीते हैं राग में और चर्चा सुनना चाहते हैं विराग की । जीवन जीते हैं सराग का और आदर्श मानते हैं विराग को । आज तक किसी भी धर्म ने राग को आदर्श नहीं माना । धर्म का आदर्श है परमात्मा । राग-द्वेष से जो मुक्त है, वह परमात्मा है । दुनिया का यही वैचित्र्य है-- राग का जीवन जीना और वीतराग को इष्ट या आदर्श मानना । इसके पीछे एक बहुत बड़ा बौद्धिक कारण है । यदि राग को आदर्श माना जाए तो राग इतना भयंकर बन जाएगा कि आदमी जी नहीं सकेगा।
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