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अध्यात्म का व्यावहारिक मूल्य
मनुष्य शरीर, मन और इन्द्रियों की दुनिया में जी रहा है। शरीर से सारी प्रवृत्तियों का संचालन होता है । इन्द्रियों से बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क बनता है और मन के द्वारा चिन्तन तथा कल्पना की जाती है। वाणी हमें दूसरों से मिलाने का कार्य करती है। जीवन की परिभाषा मनुष्य ने दृश्य संसार से ही निकाली है । शरीर, मन, इन्द्रियां और वाणीइन चारों को ही जीवन मानकर व्यक्ति उलझा हुआ है । किन्तु क्या इस दृश्य जगत् के परे भी कुछ है ? यदि है तो क्या हम उसे जान सकते हैं ? यदि नहीं जान सकते तो क्या अदृश्य के अस्तित्व को नकार सकते हैं ? गति है, प्रगति नहीं
ये प्रश्न अध्यात्म के हैं । यह बौद्धिक स्तर की बात नहीं है जहां तर्क-वितर्क चल सके । जब हम गहरे अन्तर् अनुभव में चले जाते हैं तब वादों और तर्कों से परे हटकर अनुभूति का तत्त्व पाते हैं । आचार्य हरिभद्र सूरि ने लिखा है
'वादांश्च प्रतिवादांश्च, वदन्तो निश्चितांस्तथा । तत्त्वांतं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ ।
मुक्त्वाऽतो वादसंघट्ट-मध्यात्म मनुचिन्त्यताम् ।।' वाद और प्रतिवाद परस्पर में इस प्रकार चल रहे हैं कि जिनका कोई पार नहीं । भारतीय दर्शनों ने बहुत वादविवाद किया परन्तु तैली के बैल की तरह जहां से चले थे वहीं वापस पहुंच गए । तर्क और वादविवाद में गति तो है, किन्तु प्रगति नहीं होती। पिछले हजार-पन्द्रह सौ वर्षों में अधिकांशतः ऐसा ही हुआ है । केवल तर्क और शब्दों की पकड़ रही है, अनुभूति नहीं की गई और इसीलिए प्रगति नहीं हुई । प्रगति के लिए आन्तरिक विकास की जरूरत है और आन्तरिक विकास के लिए अध्यात्म और योग दो प्रिय विषय हैं।
अशांति का कारण
योग का अर्थ है—मिलना अथवा समाहृत हो जाना । हमारे मन में असंख्य प्रश्न
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