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समस्या को देखना सीखें
हम यह जानने का प्रयत्न करें कि यह क्या है ? एक धार्मिक व्यक्ति एक सिद्धान्त को दस-बाहर वर्ष की उम्र से दोहराना शुरू करता है और दोहराते-दोहराते मर जाता है पर वह अनुभव नहीं करता । शास्त्रों के प्रति हम न्याय तब कर सकते हैं जब शास्त्र हमारे लिए एक पूर्व-मान्यता के रूप में आएं । जैसे एक वैज्ञानिक पूर्व-मान्यता को लेता है। न्यूटन ने देखा कि सेव गिर रहा है, उसके लिए सेव का गिरना एक शास्त्र बन गया। किन्तु क्या सेव गिर रहा है इतने मात्र से उसे ज्ञान हो गया ? उसने प्रयोग किया, उसका परीक्षण किया और परीक्षण करके सिद्धान्त की स्थापना की कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है। उस सेव का गिरना उसके लिए शास्त्र था, पूर्व मान्यता थी । वैसे ही अहिंसा अच्छी है, ब्रह्मचर्य अच्छा है, अपरिग्रह अच्छा है, यह हमारी पूर्व मान्यता है । हम शास्त्रों में पढ़ लेते हैं और उन्हें स्वीकार कर लेते हैं।
क्या अपरिग्रह को अच्छा माननेवाले परिग्रह से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। शायद कभी नहीं करते । उनकी लालसा तो परिग्रह की ओर रहती है कि आज अगर दस लाख पास में है तो अगले वर्ष बीस लाख हो जाएं । वह भी दूसरों के लिए नहीं, केवल अपने स्वार्थ के लिए और अपने भोग के लिए | उनकी अभिमुखता परिग्रह की
ओर है और वे अपरिग्रह के सिद्धान्त की रटन लगाते रहते हैं । अहिंसा की बातें करने वाले बहुत लोग मिलते हैं किन्तु क्या उन्होंने अहिंसा को ठीक समझा है ? अगर आज कोई यह प्रमाणित कर दे कि गीता में, उत्तराध्ययन में यह लिखा है कि हिंसा करना भी धर्म है; संभवतः वे मान लेंगे । उनके लिए अहिंसा धर्म है या हिंसा करना भी धर्म है; इसमें कोई फर्क नहीं है यदि कोई शास्त्रों से प्रमाणित कर देता है तो वह बात उन्हें मान्य है । अस्पृश्यता सैकड़ों वर्षों से, हजारों वर्षों से चली आ रही थी किन्तु इन पचास वर्षों से बहुत वाद-विवाद से गुजरी । क्यों गुजरी ? इसलिए कि बहुत लोग यह जानते थेअछूतता, अस्पृश्यता तो शास्त्रों के द्वारा सम्मत चीजें हैं । गरीबी क्यों पल रही है ?
हिन्दुस्तान में गरीबी क्यों पल रही है ? बहुत सारे लोगों के दिमाग में यह घुसा हुआ है, जो गरीब हैं उनके दिमाग में भी और जो उच्चवर्ग के हैं उनके दिमाग में भीधनवान अपने भाग्य का फल भोगता है, अपने कर्मों का फल भोगता है । ईश्वर की सृष्टि ही ऐसी है । भला उसे कौन अन्यथा कर सकता है ! यदि यह मिथ्या धारणा न होती तो गरीबी को मिटाने में और अधिक त्वरता आती।
आज भी इस भाग्यवादी और कर्मवादी धारणा के द्वारा पुरुषार्थ की आग पर राखसी आयी हुई है । वह जलती चली जा रही है । देखते भी हैं और सुनते भी हैं; बहुत साधारण लोगों को ऐसा कहते हुए- “क्या करें ? हमारे भाग्य में ऐसा ही लिखा था, दूसरा कोई क्या करे ?" स्वयं की कोई प्रेरणा नहीं है । उसके पीछे एक मान्यता बोल
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