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धर्म की समस्या : धार्मिक का खंडित व्यक्तित्व
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होती हैं, जो उसके शरीर के साथ, मन और भावनाओं के साथ जुड़ी हुई हैं । वे मौलिक वृत्तियां एक ओर हैं और दूसरी ओर उसकी मानी हुई या जानी हुई बातें है । एक आदमी दूसरे आदमी के समान हैं, यह हम मानते हैं किन्तु क्या इसकी अनुभूति हमें है ? यदि इस बात की अनुभूति हो जाए कि हर आदमी एक-दूसरे के समान है, आत्मतुल्य है, 'प्रत्येक आत्मा दूसरी आत्मा के समान है, तो फिर कोई आदमी किसी को नहीं सता सकता, किसी का शोषण नहीं कर सकता, किसी को हीन और दीन नहीं मान सकता, किसी को नीच और उच्च नहीं मान सकता । ऐसी आध्यात्मिक अनुभूति है ही कहां? केवल रटी-रटाई बातें दुहराई जाती हैं। . शास्त्रों की दुहाई
__आप धार्मिक लोगों को देखिए और उनसे पूछिए कि एक आदमी दूसरे आदमी के समान है, इसका प्रमाण क्या है ? कोई कहेगा, गीता में ऐसा लिखा है । जैन कहेगा, उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है । बौद्ध कहेगा, धम्मपद में लिखा है । कोई बाइबिल की दुहाई देगा और कोई कुरान की दुहाई देगा । न जाने किस-किस ग्रन्थ की दुहाई आयेगी । सबका एक ही उत्तर होगा-शास्त्रों में लिखा है, इसलिए मान रहे हैं, हमारा कोई ऐसा अनुभव नहीं है।' जब तक हम दूसरे का भार सिर पर ढोएंगे, केवल शब्दों का भार ढोते रहेंगे तो यह द्वन्द्व कभी मिटने वाला नहीं है। यह द्वन्द्व रहेगा कि हम मानते कुछ चले जाएंगे, कहते कुछ चले जाएंगे और करते कुछ चले जाएंगे। हमारी क्रिया में और हमारे सिद्धान्त में अद्वैत तभी आएगा जब वह सत्य हमारे जीवन में अनुभूत हो जाए । पण्डितों का संसार
धर्म वास्तव में प्रयोग की वस्तु थी, अभ्यास की वस्तु थी। आज धर्म का प्रयोग कहां है ? धर्म तो इतना रूढ़ हो गया और शास्त्रों की वासना में इतना जकड़ दिया गया कि सचमुच धर्म के लिए जीवन में कोई अवकाश नहीं है। शंकराचार्य ने ठीक ही लिखा है— बहुत सारी वासनाएं होती हैं किन्तु सबसे भयंकर वासना है शास्त्रों की । एक बहुत बड़े जैनाचार्य पूज्यपाद हुए हैं। उन्होंने लिखा है कि जो संसारी लोग होते हैं उनमें पुत्र की वासना, पत्नी की वासना, परिवार की वासना होती है, धन की वासना होती है। जो पंडित बन जाते हैं उनमें शास्त्रों की वासना हो जाती है । उनका घर संसार होता है, पंड़ितों का शास्त्र संसार होता है । दोनों अपने-अपने संसार की सृष्टि कर लेते हैं । मुक्त होने वाला कोई नहीं है । ऐसी स्थिति में हम कैसे आशा करें कि मनुष्य की समझ में धर्म आ जाए ? अपेक्षित है प्रयोग
आवश्यकता है अनुभूति की और प्रयोग की । जो प्रयोग की प्रक्रिया चले, उससे
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