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समस्या है बहिरात्म भाव
मनुष्य जीना चाहता है, उसमें जीने की इच्छा है, जिजीविषा है । यह प्राणी का प्रथम लक्षण है । वह संतति का संवर्धन करना चाहता है । अमर होने की भावना या वंशवृद्धि की भावना प्राणी का दूसरा लक्षण है | उसका तीसरा लक्षण है- आवश्यकताओं की मूर्ति । प्रत्येक प्राणी अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है । रोटी, पानी, कपड़ा, मकान आदि-आदि की पूर्ति करता है । ये तीन मूलभूत बातें हैं, जो प्रत्येक प्राणी में मिलती हैं जजीविषा, संतति का संवर्धन और आवश्यकता की संपूर्ति ।। आत्मा के तीन रूप
__ मनुष्य अधिक विकासशील प्राणी है । उसने अपनी स्मृति का विकास किया है, कल्पना और चिन्तन का विकास किया है । उसका नाड़ीतंत्र बहुत विकसित है। अन्य वाणियों को वैसा योग प्राप्त नहीं है । इसलिए सब प्राणियों से उसने एक कदम आगे बढ़ाया और अपनी काल्पनिक आवश्यकताओं का एक साम्राज्य खड़ा कर लिया । आवश्यकता पूरी हो सकती है पर काल्पनिक आवश्यकताओं के साम्राज्य का कभी अन्त नहीं होता, इतिश्री नहीं होती, वह बढ़ता ही चला जाता है । यही समाज की समस्या है और यही है आदमी का बहिरात्म भाव ।
जैनधर्म निर्वाणवादी धर्म है । वह निर्वाण को मानकर चलता है । धर्म की अन्तिम मंजिल है निर्वाण । निर्वाणवादी धर्म में निर्वाण से पहले आत्मा का होना जरूरी है। धर्म का पहला बिन्दु है आत्मा और अन्तिम बिन्दु है निर्वाण । जैनाचार्यों ने आत्मा को देखा, अनुभव किया और जाना- आत्मा एक रूप में नहीं है वह स्वरूपतः एक है, चैतन्यमय है फिर भी विभाजित है । उसे तीन भागों में देखा गया— बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । समस्या काल्पनिकता की
बहिरात्मा वह है, जो आत्मा के बाहर परिक्रमा कर रहा है, भीतर प्रविष्ट नहीं हो रहां है । मकान का दरवाजा बन्द है, व्यक्ति भीतर नहीं जा पा रहा है । उसका कारण है मिथ्या दृष्टिकोण । जब तक दृष्टिकोण मिथ्या रहता है, अपनी आत्मा में अपना प्रवेश नहीं हो सकता । अपने ही घर में अपना प्रवेश निषिद्ध हो जाता है । बड़ा आश्चर्य है
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