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समस्या को देखना सीखें
मिट्टी है, स्थूल वस्तु है और अवांछनीय है ।'
"प्राचीन सभयता मनुष्यों को जीवन की उच्चतर साधनाओं—ईश्वरीय प्रेम, पड़ोसी का आदर और आत्मा की उपस्थिति का भान की ओर देखने की प्रेरणा करती थी | जितने ही शीघ्र लोग उस जीवन की ओर लौट जायें उतना ही अच्छा है ।'' आध्यात्मिक राम
गांधीजी ने राम का नाम बहुत बार लिया और वे प्रार्थना सभाओं में "रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम" की धुन भी लगाया करते थे, किन्तु उनका आध्यात्मिक राम दूसरा है । उसकी गहराई तक जाने का प्रयत्न बहुत कम हुआ है
"हम जिस राम के गुण गाते हैं, वे राम वाल्मीकी के राम नहीं है, तुलसी "रामायण" के राम भी नहीं है । हालांकि तुलसीदास की रामायण मुझे अत्यन्त प्रिय है और उसे मैं अद्वितीय ग्रंथ मानता हूं तथा एक बार पढ़ना शुरू करने पर कभी उकताता नहीं, तो भी हम आज तुलसी के राम का स्मरण करने वाले नहीं हैं और न गिरधरदास के राम का । तब फिर कालिदास और भवभूति के राम का तो कहना ही क्या ? भवभूति के उत्तररामचरित्र में बहुत सौंदर्य है, किंतु उसमें वे राम नहीं है, जिनका नाम लेकर हम भवसागर तर सकें या जिनका नाम हम दुख के अवसर पर लिया करें । मैं असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति हूं कि राम नाम लो | अगर नींद न आती हो तो भी कहता हूं कि “राम नाम लो' | किंतु ये राम तो दशरथ के कुंवर या सीता के पति राम नहीं हैं । ये तो देहधारी राम ही नहीं हैं । जो हमारे हृदय में बसते हैं, वे राम देहधारी हो ही नहीं सकते । अंगुठे के समान छोटा-सा तो हमारा हृदय और उसमें भी समाए हुए राम देहधारी क्यों कर हो सकते हैं।'
जब तक हम देह की दीवार के पार नहीं देख सकते, तब तक सत्य और अहिंसा के गुण इसमें पूरे-पूरे प्रकट होने वाले नहीं है । जब सत्य के पालन का विचार करें तब देहाध्यास छोड़ना ही चाहिए, क्योकि सत्य के पालन के लिए मरना जरूरी होगा । अहिंसा की भी यही बात है । देह तो अभिमान का मूल है । देह के बारे में जिसका मोह बना हुआ है, वह अभिमान से मुक्त हो ही नहीं सकता । जब तक मेरे मन में यह विचार है कि देह मेरी है, तब तक मैं सर्वथा हिंसामुक्त हो ही नहीं सकता हूं | जिसकी अभिलाषा ईश्वर को देखने की है, उसे देह के पार जाना पड़ेगा, अपनी देह का तिरस्कार करना पड़ेगा, मौत से भेंट करनी पड़ेगी ।'
जब ये दो गुण मिलें, तभी हम तर सकेंगे । ब्रह्मचर्यादि का पालन कर सकेंगे। अगर उनका पालन करना चाहे तो सत्य के बिना कैसे चलेगा? सत्य का मुकाम तो सुवर्णमय पात्र से ढका हुआ है । सत्य बोलने का सत्य का आचरण करने का डर क्यों हो । असत्य
१. कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी काण्ड १० पृ. २७९-८०
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