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धर्म की तोता - रटन्त
एक कुएं के ऊपर एक राजहंस आकर बैठ गया । मेंढक कुएं के भीतर से
बोला
रे पक्षिन् ! आगतस्त्वं कुत इह सरसस्तद् कियद् भो विशालं किमद्धाम्नोऽपि बाढं नहि नहि महत् पाप ! मा ब्रूहि मिथ्या । इत्थं कूपोदरस्थः सपदि तटगतो दुर्दुरो राजहंसं,
नीचः स्वल्पेन गर्वी भवति हि विषया नापरे येन दृष्टा : ।
पक्षी ! तू कहां से आया ? पक्षी ने कहा- मैं राजहंस हूं और मानसरोवर से आया हूं । मेंढक ने छलांग भरकर कहा - 'क्या तुम्हारा मानसरोवर इतना बड़ा है ?' राजहंस ने कहा - 'इससे बहुत बड़ा है ।' मेंढक के इसी प्रकार अनेक छलांग लगाई । फिर वही उत्तर दिया मेंढक ने कहा- 'तुम झूठे हो। इससे बड़ा तुम्हारा मानसरोवर हो ही नहीं सकता ।' ओछा आदमी थोड़े पर गर्व करने लग जाता है क्योंकि उसने बहुत नहीं देखा । ... जो ओछा होता है, वह छोटा होता है। जो संकीर्ण है, उसको अहम् होता है । यही मनोदशा आज के व्यक्ति की है । व्यक्ति सोचता है कि मेरे धर्म, सम्प्रदाय, गुरु और धर्म-ग्रन्थ से बड़ा अथवा महान् कोई नहीं हो सकता । वह यह भी सोचता है कि मेरे चिन्तन से आगे, मेरे विचार से ज्यादा कहीं चिन्तन नहीं है । यहीं व्यक्ति अपने अस्तित्व को खतरे में डाल लेता है, विकास को अवरुद्ध कर देता है ।
धर्म का लक्ष्य
हमें अन्तर्मुखी बनना है और देखने के लिए यही दृष्टि पर्याप्त नहीं है, अन्तर्-दृष्टि की अपेक्षा है। जो यह दृष्टि नहीं देता है, वह सच्चा साधु नहीं, गुरु और आचार्य नहीं । धर्म का लक्ष्य था - अन्तर्दृष्टि का विकास। योगी - ध्यानी सदा कहते रहे कि इन आंखों को मूंदकर देखने का अभ्यास करो । कानों को बंद कर अन्तर्नाद सुनो । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाओ । किन्तु हमने ध्यान नहीं दिया और धर्म के साथ बाह्य नियम को जोड़ दिया । धार्मिक को सहनशीलता मांगनी चाहिए, धन-वैभव और कष्ट से मुक्ति नहीं। आज का धार्मिक परिस्थिति को सहन करने की बात नहीं मांगता, परिस्थिति से ही छुटकारा मांगता है !
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