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विशेषणहीन धर्म
आज का विद्यार्थी धर्म से बहुत कम परिचित है । साम्प्रदायिकता के कारण वह धर्म के नाम से सहमता है। यह माना जाने लगा कि धर्म की बात सोलहवीं शताब्दी की है किन्तु ऐसा मानना भूलं है । साम्प्रदायिकता ने मनुष्य का अनिष्ट जरूर किया है किन्तु मौलिक धर्म जीवन की पवित्रता है । बौद्धिकता के उपरान्त भी स्वतंत्र चेतना का जागरण धर्म ही करता है। पानी में गंध आ सकती है किन्तु केवल इसीलिए पानी पीना नहीं छोड़ा जा सकता है। उसे साफ और शुद्ध करके पीया जाता है । इसी प्रकार धर्म के नाम पर या धर्म के साथ गंदगी अथवा साम्प्रदायिकता आयी है तो उसे मिटाकर शुद्ध कर सकते हैं लेकिन धर्म के नाम से भागने, सहमने और घबराने की आवश्यकता नहीं ।
__आचार्य तुलसी धर्म की बात तो करते हैं परन्तु वह धर्म विशेषणहीन है । वह है अणुव्रत । धर्म के पीछे जो परम्पराएं, उपासनाएं और क्रियाकांड हैं, उन सबको अणुव्रत के साथ नहीं जोड़ा गया, क्योंकि ये झगड़ों के निमित्त बन जाते है । आस्था का प्रश्न
एक सेठ के यहां रसोइया था । उसका तिलक सेठ जी की तरह नहीं होता था। सेठजी सीधा तिलक निकलते थे और वह तिरछा तिलक करता था। सेठ ने उसे समझाया कि तिलक सीधा निकाला करो लेकिन रसोइया अपने विश्वास और सिद्धान्त पर अटल था । एक दिन सेठ ने धमकी देते हुए कहा- कल यदि सीधा तिलक नहीं निकाला तो नौकरी से निकाल दूंगा । दूसरे दिन रसोइया आया तो ललाट पर फिर तिरछा ही तिलक लगा था । सेठ ने डांटते हुए कहा--"मेरी आज्ञा नहीं मानकर फिर वही तिरछा तिलक किया है इसलिए अपना हिसाब कर लो।" रसोइए ने कहा- “मैंने तिलक सीधा किया है।" सेठ ने पूछा-"कहाँ है वह सीधा तिलक ?"
रसोइए ने कमीज हटाकर पेट पर बने सीधे तिलक को दिखाते हुए कहा-“ललाट का तिलक मेरा विश्वास है और पेट के लिए नौकरी करता हूं इसलिए आपका तिलक पेट पर है।"
आज धर्म का प्रश्न तिलक, चोटी, नमाज आर उपासना में ही उलझ गया है। जहां हमारे जीवन की पवित्रता का प्रश्न है, जीवन-संघर्ष में जहां जूझने का सवाल है वहां हमने मूल लक्ष्य को भुला दिया । अशिक्षा के साथ जीविका का प्रश्न जुड़ा हुआ है
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