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धर्म का पहला पाठ
आधुनिक युग में पढ़ने को बहुत ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है और शास्त्रों के अध्ययन पर तो विशेष जोर दिया जाता रहा है | किन्तु एक आचार्य ने लिखा है
वेदान्यशास्त्रवित् क्लेशं, रसमध्यात्मशास्त्रवित् ।
भाग्यभृद् भोगमाप्नोति, वहति चन्दनं खरः ।। –'शास्त्रों को कोरा जानने वाला उनका भार ढोता है और क्लेश पाता है । वह तार्किक बनकर दुःख उठाता है क्योंकि उसने केवल बुद्धि का व्यायाम किया, अध्यात्म नहीं पढ़ा । गधा चंदन का भार ढोता है किन्तु उसका भोग कोई दूसरा भाग्यशाली ही करता है।
हमारी अधिकांश समस्याएं शब्दों तक ही उलझ रही हैं । यह भी कहा जा सकता है कि अनेक समस्याएं केवल शब्दों का जाल है। हमारी दुर्बलता है कि भाषा और शब्दों के बिना काम नहीं चलता । अधिकांश समस्याएं शब्दगत एवं भाषागत हैं, जिनके बीच मनुष्य छटपटा रहा है। दिल्ली से राजस्थान के मार्ग में मैंने टूटी-फूटी सड़क देखकर एक कर्मचारी से कारण पूछा । उसने बताया- आपकी नजर में सड़क टूटी हुई है किन्तु सरकारी फाइलों में यह सड़क बन चुकी है | यह है शब्दों की समस्या । हमारी विवशता या दुर्बलता है कि हम उससे मुक्त नहीं हो पाते, किन्तु यदि मुक्ति की ओर अभिमुख हो जाएं तो भी बहुत काम हो जाएगा । मुक्ति, अध्यात्म और योग को लोगों ने जटिल मान लिया है और इस मार्ग की ओर बढ़ने का साहस नहीं जुटाते । धर्म, अध्यात्म और योग का अर्थ है हमारी अभिमुखता मुक्ति की ओर हो जाए। वह सुख नहीं है
___ आज हम शरीर, मन और वाणी के द्वारा बंधे हुए है । इन तीनों के बंधन से यदि थोड़ा-सा भी छुटकारा प्राप्त हो सके तो आनन्द का नया स्रोत खुल जायेगा । आनन्द और सुख क्या हैं ? भूख के लिए रोटी, प्यास के लिए पानी, शरीर के लिए वस्त्र आदि भोगकर व्यक्ति सुख का अनुभव करता है किन्तु क्या सचमुच वह सुख है ? थोड़ी देर के बाद पुनः भूख लगती है, प्यास जग जाती है और अन्य आवश्यकताएं खड़ी हो जाती हैं । वह सुख दुःख में बदल जाता है । इस सुख-दुःख पर भारतीय शास्त्रों में बहुत विवेचन
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