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करुणा का दोहरा रूप
शमार्थं सर्वशास्त्राणि, विहितानि मनीषिभिः ।
स एव सर्वशास्त्रज्ञः, यस्य शान्तं सदा मनः ।। एक आचार्य ने चिंतन किया कि क्या कोई सर्व-शास्त्रज्ञ हो सकता है ? उन्हें लगा कि यह सम्भव नहीं, क्योंकि अनेक भाषाओं में अनेक ग्रंथ हैं। भला किस-किस को पढ़ा जाए ? सारी जिंन्दगी खपने पर भी सभी शास्त्रों को पढ़ना सम्भव नहीं होगा । चिंतन का दूसरा पहलू उभरा और उनको लगा कि वही व्यक्ति सर्व-शास्त्रज्ञ है, जिसका मन सदा शांत है; क्योंकि सभी शास्त्र शांति के लिए रचित होते हैं । व्यक्ति अशांत क्यों है ?
शान्ति और अशान्ति के बीच सारी दुनिया झूल रही है । अशान्ति से शान्ति की ओर आने का मनुष्य अथक प्रयास कर रहा है किन्तु जब तक वह अशान्त है, शान्ति उसे मिल नहीं सकी । मनुष्य ने अन्य बहुत कुछ पाया किन्तु शान्ति को प्राप्त नहीं कर सका । अशान्ति का प्रश्न जहां का तहां और ज्यों का त्यों है । बैलगाड़ी पर चलने वाला मनुष्य रॉकेट और स्पूतनिक की यात्रा कर रहा है, समुद्र की गहराई में पैठ गया है और मशीनों तथा यंत्रों का चरम विकास हुआ है । स्थिति ऐसी बन रही है कि तोप से तोप लड़ेगी । युद्ध भी आदमी नहीं, उसकी बुद्धि ही लड़ेगी । मनुष्य उपकरण-प्रधान हो गया है, फिर भी अशान्ति की इतिश्री नहीं हो रही है । जहां धन वैभव, भोग और विलास ज्यादा है, जहां शास्त्रों की प्रचुरता है वहां तो दुःख और भी अधिक है, अशान्ति ज्यादा है । विद्या की विविध शाखाएं होने पर भी, सुख-सुविधा के साधनों का विकास होने के बावजूद भी व्यक्ति अशान्त क्यों है ? ऐसी स्थिति क्यों ?
हमें क्या बनना है ? इसका आज चिंतन नहीं है । स्वयं का निर्माण करना जरूरी है। भारत को भी निर्णय करना है कि उसे क्या बनना है ? प्रवाह से बचना उसके लिए भी कठिन है यद्यपि भारत को स्थिर रहकर प्रवाह के विरुद्ध चलना था, क्योंकि यहां अध्यात्म की परंपरा रही है । मनु ने कहा था---'इस देश से दुनिया चरित्र की शिक्षा ले ।' आज
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