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जीवन की तुला : समता के बटखरे
की घोषणा की तो हर्ष नहीं; वनवास दिया तो विषाद नहीं । सचमुच यह तभी सम्भव है यदि व्यक्ति राम हो ।
शन्ति है स्व - रमण में
राम अर्थात् अपने आप में रमण करने वाला । बाह्य में रमण करने वाला शान्ति नहीं पा सकता । अपने आप में रमण करना ही शान्ति है । सुख-दुःख, जीवन-मरण में समान रहना बहुत कठिन है । मनुष्य मरने की स्थिति को सपने में देखकर भी रोने लगता है । फिर साक्षात् मौत देखकर उसकी जो हालत होती है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि किसी को मरने का दिन बता दिया जाए तो वह भय से अधमरा हो जाता है । कभी-कभी मौत के भय से मौत भी हो जाती है । इसी प्रकार मान और अपमान का प्रश्न भी है | अपने अपमान के लिए प्रतिशोध की बात तुरन्त उठती है, भले ही सामने वाले व्यक्ति के मन में कहीं थोड़ी-बहुत भी अपमान करने की भावना नहीं हो ।
समझदार व्यक्ति बोलता नहीं, भाव प्रदर्शित नहीं करता, किन्तु गांठ बांध लेता है । मन को सीधा घुमा देता है, मोड़ लेने की भी जरूरत नहीं होती । अपमान-सम्मान में सम रहना दुष्कर है। मानसिक विषमता, उतार-चढ़ाव पर विजय पाए बिना शान्ति नहीं । शान्ति फल है, बीज नहीं । शान्ति कार्य नहीं, परिणाम है। बीज के बिना फल नहीं । उसका कारण है समभाव -- समता की आराधना किए बिना शान्ति का प्रश्न सुलझने वाला नहीं है । धर्म क्या है ? समता के सिवाय कोई धर्म नहीं । भगवान् महावीर ने समता का उपदेश दिया । जैन-शासन से समता को हटा दें तो कुछ नहीं बचेगा ।
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शान्ति का मूल
आज धर्म के क्षेत्र को भी व्यवहार के बाटों से तोलते हैं, दुनियावी लोग स्थिति को व्यवहार से तोल सकते हैं। वे मान का सम्मान, अपमान का तिरस्कार से प्रत्युत्तर दे सकते हैं । उनका यह चिन्तन हो सकता है
तुम आवो डग एक, तो हम आवें डग अट्ठ | तुम हमसे करड़े रहो, तो हम हैं करड़े लट्ठ |
धार्मिक ऐसा नहीं कर सकता । वह प्रतिकूल के लिए भी अनुकूल ही करेगा । महावीर ने चण्डकौशिक के प्रति भी कल्याण का ही चिन्तन किया । वैरभाव के बदले में भी वात्सल्य का भाव प्रदर्शित किया। जिस जीवन में समता का विकास नहीं, अध्यात्म का विकास नहीं; वहां शान्ति नहीं । धर्म और शान्ति का मूल है - समता भाव ।
धर्म का मर्म
समता की साधना और विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक हम दूसरे के प्रतिकूल व्यहार को नहीं भूलते। यह भूलना भोलापन नहीं, मूर्खता भी नहीं । हर स्थिति
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