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समस्या को देखना सीखें
वह श्लोक दोहराने का मन ही नहीं करता, क्योंकि यहां से अब मिलावट, अप्रामाणिकता
और चोरी की ही शिक्षा मिल सकती है | गीता, रामायण, आगमसूत्र, पिटक, अद्वैत का चिंतन एवं पातंजल का योगशास्त्र जैसे ग्रन्थ और नियम होने पर भी आज ऐसी स्थिति क्यों ? स्वयं शंकराचार्य ने अपने आपको विधि-निषेधों का किंकर माना है | कहां गया हमारा वह धार्मिक चिंतन ? यह है करुणा
धर्म का प्रथम पाठ था करुणा । व्यक्ति धर्म के इस तत्त्व को भूल गया है । करुणा का अर्थ है मन की मृदुता । जिस व्यक्ति की क्रूरता धुल जाती है, वह धार्मिक है । आज की दोहरी करुणा अपेक्षित नहीं । व्यापार में गरीब का गला काटते करुणा नहीं आती किन्तु वे ही धर्म के नाम पर गरीबों को करुणापूर्वक कुछ दान देते हैं, चींटियों को चीनी डालते हैं । करुणा श्रीमद् राजचंद्र की थी। उन्होंने एक व्यापारी से सौदा किया, भाव बढ़े और व्यापारी को पचास हजार रुपयों का नुकसान होने वाला था । श्रीमद् राजचंद्र उसके घर पहुंचे तो व्यापारी ने कांपते हुए कहा- "मुझे थोड़ा समय दें ताकि मैं आपकी पाई-पाई चुका सकू।"
श्रीमद् राजचंद्र ने सौदे के समझौते का कागज उससे लिया और अपने हाथों फाइते हुए कहा- “राजचंद्र दूध पी सकता है, किन्तु किसी का खून नहीं पी सकता । तुम्हारा सौदा समाप्त हुआ।" यह है करुणा । आज इसका शतांश भी तो नहीं दिखता | ध्वंस के बिना निर्माण नहीं होता
आज तो गली-सड़ी दूषित वृत्ति देखी जा रही है, जहां दिन-भर की क्रूरता को चींटी के बिल में चीनी डालकर मिटाने का प्रयास होता है | बुद्ध ने करुणा, महावीर ने अहिंसा
और गीता ने अनासक्ति का उपदेश दिया । किन्तु फिर भी कुछ असर नहीं देखा जा रहा है। केवल क्रियाकांडों से ही संतुष्टि मान रहे हैं | जीवन में परिवर्तन, संस्कारों में मोड़, जीवन का विकास और आचार-धर्म को विकसित करने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं कर रहे हैं।
आचार्य तुलसी इसीलिए धर्म की अंधश्रद्धा तोड़ना चाहते हैं, उसे हिला रहे हैं। बनाने के लिए भी तोड़ना पड़ता है । ध्वंस के बिना निर्माण नहीं होता।
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