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समस्या का पत्थर : अध्यात्म की छेनी
'वर्षातपाभ्याम् किं व्योम्नः चर्मण्यस्ति तयोः फलम् ।'
कभी बम्बई जैसी मूसलाधार वर्षा होती है और कभी राजस्थान जैसी चिलचिलाती धूप, किन्तु आकाश वर्षा में गीला नहीं होता, धूप में गर्म नहीं होता और सर्दी में ठिठुरकर कपड़ा नहीं ओढ़ता । क्योंकि आकाश वर्षा, सर्दी, गर्मी से अतीत है । उस पर इनका प्रभाव नहीं होता, जबकि हमारी चमड़ी पर इनका असर होता है ।
समस्याएं आकाश की तरह बनने पर ही मिट सकती हैं, मिटाई जा सकती हैं, किन्तु यदि हम केवल चर्ममय रह जाएंगे तो समस्याएं कभी नहीं सुलझने वाली हैं । अनन्तकाल बीत गया किन्तु किन्तु समस्याओं का कभी अन्त हुआ हो ऐसा नहीं दिखाई देता । जब तक मनुष्य है, उसके पास चिन्तन और विचार हैं तब तक समस्याएं रहेंगी । यदि व्यक्ति गहरी निद्रा में सो जाए, चिन्तन बन्द हो जाए और प्रलय जैसा ही कुछ हो जाए तो सम्भव है समस्या नहीं रहे, अन्यथा समस्या रहेगी ।
समस्या है एकांगीपन
भगवान् ने कहा—
" जे अज्झत्थं जाणई, से बहिया जाणई । जे बहिया जागाई, स अज्झत्थं जाणई ||”
'जो अध्यात्म को जानता है वह बाहर को जानता है ।
जो बाहर को जानता है वह अध्यात्म को जानता है ।'
आज हमारी समस्या यह है कि कुछ व्यक्ति केवल अध्यात्म को लेकर बैठे हैं और कुछ केवल बाह्य को पकड़े हुए हैं। दोनों अपने - अपने सिरों को तानकर बैठे हैं। जहां अध्यात्म है वहां व्यावहारिकता का सामंजस्य नहीं है । एकांगीपन ही समस्या है। कौवे को काना माना जाता है, क्योंकि वह एक ही गोलक से दोनों आंखों का काम चलाता है। उसमें एकांगीपन है। यह एकांगी दृष्टि है। मनुष्य भी आज सर्वांगीण दृष्टि से देखना नहीं चाहता । उसके मन पर आवरण आ गया है। सरलता और ऋजुता नहीं है । यदि सरलता और ऋजुता हो तो कोई समस्या रहनेवाली नहीं है ।
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