________________
सापेक्षता के कोण
मुक्ति कहें या स्वतंत्रता एक ही बात है । मुक्ति का अर्थ है बंधन से छुटकारा पाना । मुक्ति का यह चिंतन व्यावहारिक बनकर समाज में भी आया । स्वतंत्र समाज की कल्पना, व्यक्ति-स्वातंत्र्य की भावना का मूल यही मुक्ति की विचारधारा है। मुक्ति की प्रक्रिया
मुक्ति की प्रक्रिया क्या है ? इसके बारे में तीन मार्ग बताये गये हैं— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र । सर्वप्रथम दृष्टि की स्पष्टता अपेक्षित है । दर्शन के द्वारा दृष्टि साफ होने पर ही सम्यक् ज्ञान हो पाता है । ज्ञान दर्शन से पहले नहीं होता। दुनिया में ऐसा कोई पदार्थ नहीं हो सकता, जिसे देखे बिना ही जान लिया गया हो । हम उतना ही जानते हैं जितना देखते हैं । जो सुना है उसे किसी ने देखा है, उसी के शब्दों के सहारे हम जान पाते हैं । सामने चित्र है, उसे देखकर ही मैं उसका ज्ञान करता हूं, जब तक उसे देख नहीं लेता, ज्ञान नहीं होता । समन्विति है योग
दर्शन के बाद ज्ञान होता है । देखना, जानना और फिर उसे क्रिया में लानाइन तीनों की समन्विति का नाम योग है । जैन-दर्शन ने समन्वय के विचारों का प्रतिपादन किया, क्योंकि वह एकांगी दृष्टि से नहीं देखता | उसकी दृष्टि है अनेकान्त । अनेकान्त दृष्टि का अर्थ है प्रत्येक वस्तु को अनन्त दृष्टिकोणों से देखना । जब तक देखने के पहलू अनन्त नहीं होते तब तक सत्य को नहीं पाया जा सकता । मनोविज्ञान इसीलिए मन को विविध पहलुओं से देखता और विश्लेषण करता है। एक ही मकान को यदि व्यक्ति सामने से देखे तो उसे एक दृश्य दिखेगा, बगल से, आगे-पीछे से और भिन्न-भिन्न कोणों से देखने पर एक ही मकान के विभिन्न रूप दीखेंगे । एक ही व्यक्ति का चित्र विभिन्न कोणों से लेने पर विभिन्न होता है । एकांगीदृष्टि से पूर्ण जानकारी नहीं हो पाती और हमारी दृष्टि में अन्तर आ जाता है । अनेकांत का अर्थ
अनेकांत का अर्थ है-- एक ही वस्तु के अनन्त या अनन्त विरोधी युगलों को अनन्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org