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अहिंसा के दो स्तर
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आत्मा का अस्तित्व और अहिंसा
कोई भी विकास एकपक्षीय धारा में अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता । हर विकास की प्रतिक्रिया होती है और उसके परिणामस्वरूप प्रतिपक्षी तत्त्व का विकासक्रम प्रारम्भ होता है ।
भौतिक अस्तित्व की प्रतिक्रिया ने मनुष्य को आत्मिक अस्तित्व की ओर गतिमान बनाया । उसे इस सत्य की दृष्टि प्राप्त हुई कि चेतन का अस्तित्व अचेतन से स्वतन्त्र है । यह जगत् चेतन और अचेतन-इन दो सत्ताओं का सांसर्गिक अस्तित्व है । उस दिन सामाजिक विकास के सामने आर्थिक विकास और राजतन्त्र के सामने आत्मतन्त्र का प्रथम सूत्रपात हुआ । इस सूत्रपात ने अहिंसा आदि का मूल्य-परिवर्तन कर डाला । सामाजिक अस्तित्व के स्तर पर उनका मूल्य सापेक्ष और ससीम था, वह आत्मिक अस्तित्व के स्तर पर निरपेक्ष और निःसीम हो गया । सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा का अर्थ था प्राणातिपात का आंशिक निषेध- मनुष्यों तथा मनुष्योपयोगी पशु-पक्षियों को न मारना और न मारने का लक्ष्य था- सामाजिक सुव्यवस्था का निर्माण और स्थायित्व ।
आत्मिक क्षेत्र में अहिंसा का अर्थ हुआ प्राणातिपात का सर्वथा निषेध- किसी भी प्राणी को न मारना, न मरवाना और मारने वाले का अनुमोदन भी नहीं करना । प्राणातिपात के सर्वथा निषेध का लक्ष्य था मुक्ति अर्थात् आत्मोदय ।
___ मुक्ति का दर्शन जैसे-जैसे विकसित हुआ, वैसे-वैसे अहिंसा की मर्यादा भी व्यापक होती चली गई। हिंसा का मूल है अविरति
व्यापक मर्यादा में इस भाषा को अव्याप्त माना गया कि प्राणातिपात ही हिंसा है और अप्राणातिपात ही अहिंसा है। वहां हिंसा और अहिंसा की परिभाषा की आधारभित्ति अविरति और विरति बन गई । अविरति अर्थात् वह मानसिक ग्रन्थि, जो मनुष्य को प्राणातिपात करने में सक्रिय करती है, जब तक उपशान्त या क्षीण नहीं होती तब तक हिंसा का बीज उन्मूलित नहीं होता। इसलिए हिंसा का मूल अविरति है, प्राणातिपात उसका परिणाम है । यह व्यक्त हिंसा उस मानसिक ग्रन्थि या अव्यक्त हिंसा के अस्तित्व में ही सम्भव है।
विरति-हिंसा-प्रेरक मानसिक ग्रन्थि की मुक्ति जब हो जाती है तब हिंसा का बीज उन्मूलित हो जाता है । अहिंसा का मूल विरति है, अप्राणातिपात उसका परिणाम है। यह व्यक्त अहिंसा हिंसा-प्रेरक मानसिक-ग्रन्थि की मुक्ति होने पर ही विकासशील बनती है । इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व में अहिंसा के अर्थ, उद्गम और लक्ष्य में आमूलचूले परिवर्तन हो गया ।
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