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समस्या को देखना सीखें
अध्यात्म का बहुत बड़ा रहस्य है कि हम उस क्षण के प्रति जागरूक रहें, जिस क्षण में राग और द्वेष के बीज की बुवाई होती है। दो मुख्य केन्द्र
शरीर में दो मुख्य केंद्र हैं । एक है काम-केंद्र और दूसरा है ज्ञान केंद्र | नाभि के नीचे का स्थान काम केंद्र है, वासनाकेंद्र है | मस्तिष्क है ज्ञानकेंद्र । हमारे शरीर में ऊर्जा का एक ही प्रवाह है । जहां मन जाएगा, वहां ऊर्जा जाएगी, जहां मन जाएगा, वहां प्राण जाएगा | यदि हमारा मन, हमारा चिंतन कामकेंद्र की ओर ज्यादा आकर्षित होता है तो उसे बल मिलेगा, शक्ति मिलेगी और वह समृद्ध होगा। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जिसे सिंचन मिलता है, वह पुष्ट होता है, जिसे सिंचन नहीं मिलता, वह सूख जाता है, नष्ट हो जाता है । जिसे सिंचन प्राप्त है, वह बढ़ता है, फलता-फूलता है । जिसे सिंचन प्राप्त नहीं है, वह टूट जाता है, ठूठ मात्र रह जाता है | हमारी ऊर्जा का जिसे सिंचन मिलेगा, वह अवश्य पुष्ट होगा, बढ़ेगा, फलेगा-फूलेगा फिर चाहे वह कामकेंद्र को मिले । यदि हमारा चिंतन नीचे की ओर जाता है, कामकेंद्र की ओर जाता है तो हमारी ऊर्जा का प्रवाह उस ओर मुड़ जाता है । हमारी सारी प्राण शक्ति उसी ओर प्रवाहित होने लग जाती है । तब कामकेंद्र बलवान होता जाता है और ज्ञानकेंद्र कमजोर होता जाता है । यह है लौकिक चित्त की प्रक्रिया । यह है लौकिक चित्त का कार्य । लौकिक चित्त सदा कामना को पुष्ट करता है, कामकेंद्र को सिंचन देता है, बलवान बनाता है ! हम यह भली भांति जानते हैं कि मनुष्य के जीवन में कामना का जितना तनाव होता है उतना तनाव किसी का भी नहीं होता । यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निरंतर रहने वाला तनाव है | क्रोध
का गवेग कभी-कभी होता है, लोभ की चेतना कभी-कभी होती है, किंतु काम की चेतना निरंतर रहती है । जब हमारी चेतना कामकेंद्र की ओर अधिक बढ़ने लगती है तब सहज ही ज्ञानकेंद्र की शक्तियां क्षीण होती जाती हैं । साधना से इसे उलटना होता है । जो साधक अपने ज्ञान का विकास चाहता है, जो निर्मलता चाहता है, उसे चेतना के प्रवाह को उलटना होगा, मोड़ना होगा । अर्थात मन को ऊपर की ओर ले जाना होगा । मूल्यांकन का मार्ग
हम इस दुनिया में सत्य और भ्रांति के चक्र में पड़े हुए हैं । धर्म का सारा मार्ग सत्य की खोज के लिए है । आदिकाल से मानव सत्य की खोज करता चला आ रहा है | साथ-साथ भ्रांति भी चल रही है | यह चलती रहेगी। यदि भ्रांति साथ-साथ नहीं चलती तो ध्म की आज कोई अपेक्षा ही नहीं रह जाती । किंतु जैसे-जैसे धर्म का विस्तार हुआ है, वैसे-वैसे भ्रांति का भी विस्तार हुआ है । हम धर्म और अध्यात्म की बात करते हैं सत्य की उपलब्धि के लिए। आदमी सोने का मूल्य कर सकता है, पर मिट्टी का नहीं । क्योंकि वह इतनी सहज और सुलभ है कि हर आदमी उसे प्राप्त कर सकता है । यह सच द्र
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