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समस्या को देखना सीखें
पुद्गल और चेतना का समन्वय
__ जीवन के परिपार्श्व में वाणी चलती है, मन उड़ान भरता है । शरीर, वाणी और मन-तीनों की सृष्टि जीवन में होती है । तीनों की सृष्टि जीवन है । पुद्गल के साथ चेतना का जो समन्वय है, वह जीवन है। जीवन निखरता है, रूप, रस, गंध और आकार से । चेतना का आधार अरूप है, अरस है, अंगध और अनाकार है । जीवन दृश्य है, वह अदृश्य है | जीवन पौद्गलिक है, वह अपौद्गलिक है । जीवन कर्म है, वह कर्ता है, प्राणी है । प्राणी प्राणों से बंधा हुआ है । प्राण आते हैं, चले जाते हैं । प्राणी बंधता है, छूट जाता है । प्राणी नहीं मिटता, प्राण भी नहीं मिटते । प्राणी और प्राण का सम्बन्ध मिट जाता है | फिर प्राणी उन प्राणों का प्राणी नहीं रहता और वे उस प्राणी के प्राण नहीं रहते, यह समझौते की समाप्ति है । यही जीवन का अन्त है । इसी का नाम है मौत । प्राणी व प्राणों की संधि जीवन है | चलना, बोलना और सुनना- ये आत्मा और पुद्गल दोनों के स्वभाव-धर्म नहीं हैं। दोनों मिलते हैं, तीसरी वस्तु निकल आती है । वह न आत्मा है और न पुद्गल ही, उसका अपना नाम है-- 'जीवन' । वह आत्मा भी है और पुद्गल भी । वह कर्म और चेतना का समन्वय है, पार्थिव और अपार्थिव की मिली-जुली सरकार है।
जीवन का लक्ष्य
जीवन का लक्ष्य क्या है—यह अगम्य है | लक्ष्य क्या होना चाहिए-- यह विचार करने की वस्तु है । लक्ष्य-निर्णय के पूर्व लक्ष्य-निर्णता के स्वरूप का निर्णय आवश्यक है । लक्ष्य-निर्णय का जो चेतन है । वह स्वतंत्र सत्ता है या नहीं- यह प्रश्न चोटी का है । चोटी का इसलिए कि उसको पकड़े बिना नीचे की कल्पनाओं को बढ़ने की दिशा नहीं मिलती । चेतना की स्वतंत्र सत्ता को त्रिकालभावी माननेवाले की जो दिशा होगी वह उसे वर्तमान जीवन पर्यवसित माननेवाले की नहीं होगी । उनके मध्य मिलते लगेंगे, किन्तु उनके छोर दो होंगे । आत्मवादी आध्यात्मिकता या संयम का स्वतंत्र मूल्य जानता है । नीति से आगे जाना चाहिए. यह अनात्मवादी की समझ से परे की बात है । आत्मशान्ति या सुख-दुःख में सम रहने की वृत्ति के लिए आत्मनिष्ठ सोच सकता है । अनात्मनिष्ठ के लिए वह चिन्तन का विषय नहीं बनता। शुभ-अशुभ कर्म और उसका अवश्यंभावी भोग इस जीवन में या उससे आगे- ये जो अध्यात्म के आधार हैं, वे नीति के नहीं हैं । नीति तात्कालिक या दृश्य लाभालाभ की दृष्टि है अथवा मुख्यतया पौद्गलिक, पदार्थ-परक है | अध्यात्म शाश्वत लाभ का विचार है और वह आत्म-परक है।
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