________________
अभय
में भय न हो तो कार्य कैसे चले ? 'लोग क्या कहेंगे ?' यह भय बहुत बार बुराइयों से बचाता है । सामाजिक जीवन में भय अनावश्यक है, यह कहना कठिन है । सबका जीवन उन्नत नहीं होता, इसलिए यदि किंचित् मात्रा में भय न हो तो व्यवस्था ठीक नहीं चलती ।
अभय और आत्मानुशासन
साधना की दृष्टि से विचार करें तो हमारे मन में भय नहीं होना चाहिए | प्रश्न उठता है. भय नहीं होगा तो अनुशासन-हीनता पनप जाएगी और विघटन का मार्ग खुल जाएगा । यदि भय होता है तो साधना में बाधा आती है ।
कुछ लोग इस भाषा में बोलते हैं— मैं किसी से नहीं डरता । क्या यह अभय है ? ऐसा कहना अभय नहीं, दुःसाहस है । अभय वह होता है जिसके मन में कर्तव्य का बोध जाग जाए, आत्मानुशासन का बीज अंकुरित हो जाए ।
अभय के सूत्र
साधना के क्षेत्र में अभय होने के तीन सूत्र हैं : १. निर्ममत्व की साधना |
२. निर्विकल्पता की साधना ।
३. मैत्री ।
निर्ममत्व और निर्विकल्पता का विकास होगा तो भय की साधन-सामग्री अपनेआप क्षीण हो जाएगी । जैसे-जैसे चित्त के केन्द्रीकरण का अभ्यास बढ़ता जाएगा, वैसेवैसे भय की मात्रा कम होती जाएगी। ध्यान के अभ्यास से क्रोध स्वयं त्यक्त हो जाता है । कषाय का प्रत्याख्यान कराया नहीं जाता, वह स्वयं हो जाता है । मन पर विजय पाने का अभ्यास करने से वह व्यक्त हो जाता है । भय, घृणा, ईर्ष्या, लोभ आदि स्वयं मिट जाते हैं ।
६३
कल्पना ( सन्देह ) कम होने से भय को आगे आने का अवसर नहीं मिलता । भय को भोजन न मिलने से वह अपनी मौत मर जाता है ।
वैदिक ऋषि कहते हैं :
सर्वा आशा मम मित्राणि सन्तु । - सब दिशाएं मेरी मित्र हों ।
जैन ऋषि कहते हैं :
Jain Education International
मित्ती में सव्व भूएसु ।
- सब मेरे मित्र हैं ।
उक्त तीन भावनाओं की आराधना से अभय प्राप्त होता है । जैसे नवनीत मन्थन का परिणाम है, वैसे ही अभय इन तीन भावनाओं की आराधना का परिणाम है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org