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विश्व बंधुत्व के सूत्र
जिस मनीषी ने इस सत्य का अनुभव किया- 'विश्व एक है' उसने उदात्त स्वर में विश्व बंधुत्व का उद्घोष किया। बंधु-शब्द में सौहार्द और प्रेम की अभिव्यंजना है । एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का बंधु है, इस उद्घोषणा की पृष्ठभूमि में जो सत्य है, उसको अध्यात्म की भूमि पर अभिव्यक्त करने में भारतीय मनीषा ने बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। भेदभाव, विरोध, शत्रुता-इनके बीज बाहरी आवरणों के स्तर पर पनपते हैं । मनुष्य का भीतरी अस्तित्व है आत्मा । प्रत्येक प्राणी में आत्मा है, यह व्यापक सिद्धांत है । हम मनुष्य के संदर्भ में विचार करते समय इस सिद्धान्त को प्रस्फुटित करें कि प्रत्येक मनुष्य में आत्मा है । हम मनुष्य की आकृति, रंग, जाति, सम्प्रदाय, प्रादेशिकता, राष्ट्रीयता, भाषा आदि को देखते समय यह न भूलें कि इन सब आवरणों के पीछे छिपा हुआ एक सत्य है और वह है आत्मा । जैसी आत्मा मुझमें है वैसी ही आत्मा इस मनुष्य में है, जिसे मैं देख रहा हूँ। इस आत्मौपम्य की अवधारणा के आधार पर विश्व बंधुत्व का प्रासाद खड़ा किया गया । कटुता के सूत्रधार
कटुता और शत्रुता की बेल बाहरी आवरणों के आधार पर बढ़ती है । रंग-भेद और जाति-भेद कटुता के सूत्रधार बने हुए हैं। एक श्वेत वर्ण का आदमी काले रंग वाले को, अपने आपको उच्च जाति का मानने वाला आदमी हरिजन को सताने में रस लेता है। कुएं पर पानी नहीं भरने देता । एक श्वेत रंग का आदमी काले रंग वाले को अपने पास नहीं बैठने देता । यह द्वेष आवरण में उलझी हुई चेतना का परिणाम है, इसीलिए अध्यात्म के क्षेत्र से बार-बार घोषणा की गई— देहाध्यास अथवा देहासक्ति को छोड़ो । जातिवाद तात्विक नहीं है | संप्रदायवाद कल्याणकारी नहीं है । धर्म और संप्रदाय एक नहीं हैं । इन सिद्धान्तों ने मानवीय कटुता को धोने का बहुत प्रयत्न किया फिर भी सत्ता, धन के अहंकार से उन्मत्त बने लोगों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, इसीलिए विश्व-बंधुत्व जैसा महान् सिद्धान्त दृढ़मूल नहीं बन सका । समय-समय पर एक विश्व-सरकार, एक विश्व-धर्म जैसे स्वर गूंजते रहे, पर प्रादेशिकता और राष्ट्रीयता की मूर्छा ने उन स्वरों को सुना-अनसुना कर दिया, फलतः सभी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तनाव का जीवन
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