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अहिंसा : शक्ति-संतुलन
हिंसा और अहिंसा का प्रश्न अनादिकाल से चर्चित हो रहा है । फिर भी हिंसा की प्रकृति से मनुष्य मुक्त नहीं हुआ है । वह चलता है तो उसके सामने हिंसा का प्रश्न है । खाता है तब भी वही प्रश्न है । खाए बिना और जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा किए बिना, प्रश्न है वह कैसे जिए ? क्या अहिंसा का अर्थ जीवन का उत्सर्ग माना जाए ? यदि वही माना जाए तो अहिंसा जीवित मनुष्य के लिए नहीं होगी, फिर वह स्वयं जीवित कैसे होगी ? जो मृत के लिए हो उसका मूल्य जीवित सृष्टि के लिए कैसे होगा?
मैं कोई नई स्थापना नहीं कर रहा हूँ, जो यथार्थ है, उसे मात्र अनावृत कर रहा हूँ। मनुष्य प्रकृति से हिंसा के लोक में जीता है । दूसरे जीवों के बलिदान पर उसका जीवन चलता है । दूसरों के तिरस्कार पर उसके सम्मान का पौधा फलता है। कुछ भी मन के प्रतिकूल होता है, वह क्रोध से भर जाता है । उसका वैभव प्रवंचना और शोषण पर फलित होता है । हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी बड़ा और कोई छोटा हो सकता है । हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी समृद्ध और कोई करीब हो सकता है । हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी शोषक और कोई शोषित हो सकता है । बड़ा और छोटा, समृद्ध और गरीब, शोषक और शोषित- ये सभी वर्ग हिंसा के द्वारा लोक में बनते हैं । फिर भी हिंसा उसको भी प्रिय है, जो छोटा है, जो गरीब है और जो शोषित है । आपके मन में इसके हेतु की जिज्ञासा होगी तो मैं यही कहूँगा कि हिंसा मनुष्य की प्रकृति है | अहिंसा मनुष्य की प्रकृति नहीं है। वह सैद्धान्तिक स्वीकृति और ऊर्वारोहण का प्रयत्न है । उस प्रयत्न की दिशा में मनुष्य प्रेम से क्रोध, विनम्रता से अभिमान, ऋजुता से प्रवंचना और साम्य की अनुभूति से लोभ पर विजय प्राप्त करता है । प्रेम, विनम्रता, ऋजुता और साम्य की अनुभूति की एक शब्द में जो पहचान है, वह अहिंसा है।
अहिंसा की पकड़ इतनी स्थूल है कि कुछ जीवों को मारने या बचाने का प्रयत्न कर आदमी अपने को अहिंसक मान लेता है । वह अहिंसा की एक रेखा हो सकती है किन्तु उसकी समग्रता नहीं है | अहिंसा की पूर्णता वृत्तियों के शोधन से प्रकट होती
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