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समस्या को देखना सीखें
त्याग है, विफलता नहीं
कुछ लोग कहते हैं अमुक आदमी ने अहिंसा का मार्ग चुना इसलिए वह पिछड़ गया । हिंसा करने वाला आगे बढ़ गया । उनकी दृष्टि में आगे बढ़ने का अर्थ है वैभव पा लेना, सत्ता हथिया लेना और अकरणीय कार्य में सफल हो जाना । अहिंसा के मार्ग पर चलने वाला अशुद्ध साधन का सहारा नहीं ले सकता, इसलिए वह येन केन प्रकारेण धनार्जन नहीं कर सकता, सत्ता नहीं हथिया सकता । यह अहिंसा की विफलता नहीं किन्तु उसका त्याग है । जो हिंसक कर सकता है और पा सकता है, वही अहिंसक को करना
और पाना चाहिए तब फिर हिंसा और अहिंसा के उद्देश्य, साधना और प्राप्य में अन्तर ही क्या होगा? अहिंसा की अभिमुखता
हिन्दुस्तान के इतिहास में अनेक सम्राट् ऐसे हैं जिन्होंने जीवन के पूर्वार्ध में साम्राज्य का विस्तार किया और उसके उत्तरार्ध में साम्राज्य का परित्याग कर दिया । साम्राज्य का विस्तार हिंसा से किया और अहिंसा की भावना प्रबल हुई तब उसे छोड़ दिया । बाह्य की दृष्टि से अनुमापन करने वाला इसे अहिंसा की पराजय मानेगा | इस मान्यता में अभिमुखता का ज्ञान नहीं है । अहिंसा की अभिमुखता साम्राज्य की ओर हो नहीं सकती। उसकी अभिमुखता उतने स्वत्व की ओर होगी, जितना संविभाग से उसे प्राप्त है । एक आदमी साम्राज्यवादी भी हो, संग्रहपरायण भी हो और अहिंसक भी हो, क्या यह संभव
समस्या है निष्ठा की
बहुधा पूछा जाता है कि यदि अहिंसक के हाथ में वैभव और सत्ता नहीं होगी तो शक्ति-संतुलन हिंसक के हाथ में चला जाएगा । हिंसा की शक्ति हिंसक के हाथ में रहेगी ही । पर यह क्यों मान लिया जाता है कि अहिंसा में शक्ति नहीं है, अहिंसक शक्तिशून्य ही होता है । अहिंसक के पास जो नैतिक शक्ति होती है वह हिंसक के पास हो ही नहीं सकती है । प्रश्न यह नहीं है कि अहिंसक के हाथ में शक्ति-संतुलन नहीं है । प्रश्न यह है कि सही अर्थ में अहिंसा में निष्ठा रखने वाले लोग कम हैं । सतही अहिंसा गहराई में रही हुई हिंसा से निस्तेज हो जाती है । सैद्धान्तिक अहिंसा में प्रकट शक्ति नहीं है। उसका उदय अन्तस् की अहिंसा में होता है । अन्तस् की अहिंसा यानी वृत्तियों के व्यूह को भेदकर आनेवाली अहिंसा । वृत्ति के एक पार्श्व की चर्चा मैं अपनी अनुभूति के संदर्भ में करूँगा | मेरे गुरु ने कहा- किसी व्यक्ति को प्रसन्न रखने की आकांक्षा अच्छी नहीं है । मैं एक क्षण के लिए विस्मित-सा रहा । मैंने वे शब्द आश्चर्य के साथ सुने । फिर कुछ समय के पश्चात् मैंने उन पर चिन्तन किया । मुझे लगा वे शब्द सत्य को अपने में समेटे हुए हैं । मनुष्य अपने आप में पूर्ण है । उसकी अपूर्णता का पहला बिन्दु भय है।
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