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अणु-अस्त्र और मानवीय दृष्टिकोण
आज का युग अणु-युग के नाम से प्रसिद्ध है । अणु पहले भी उतने ही थे, जितने आज हैं पर अणु-युग होने का श्रेय अतीत को नहीं मिला, वर्तमान को ही मिला है । एक युग में आत्म-द्रष्टा महर्षियों ने अपने प्रत्यक्ष-दर्शन के बल पर अणुओं की चर्चा की थी । आज का वैज्ञानिक अपने यंत्र-बल के सहारे अणुओं की चर्चा करता है । स्थूल से सूक्ष्म और संघात से भेद अधिक शक्तिशाली होता है, यह रहस्य आज सर्वविदित हो चुका है। यह इसी सिद्धान्त की एक परिणति है।
__जब तक मनुष्य में आत्मानुशासन था, असंग्रह था और अपने में 'स्व' का सन्तोष मानने का मनोभाव था तब तक वह निर्भय था । इसका अर्थ है कि वह शस्त्रहीन था । भय और शस्त्र में कार्य-कारण का सम्बन्ध है । भय होता है, शस्त्र का निर्माण होता है । भय नष्ट होता है, शस्त्र विलीन हो जाता है । आत्मानुशासन घटा, संग्रह बढ़ा, दूसरों के 'स्व' को हड़पने का मनोभाव बना तब भय बढ़ा, या उसकी सृष्टि ने शस्त्रों की परम्परा को जन्म दिया । इस परम्परा में अणु-शस्त्र अन्तिम नहीं है | भविष्य के गर्भ में इससे अधिक प्रलयकारी शस्त्र भी हो सकता है पर वर्तमान में यह सर्वाधिक प्रलयंकारी है । खण्डित है व्यक्तित्व
सहज ही जिज्ञासा होती है कि मनुष्य निर्माण चाहता है, फिर उसने प्रलय का संग्रह क्यों किया ? इसके अनेक उत्तर हो सकते हैं किन्तु मेरी मान्यता में इसका कारण मनुष्य की खण्डता है । यदि वह अखण्ड होता तो किसके प्रति आकृष्ट होता और किससे दूर होता? किससे डरता और किसके लिए शस्त्र बनाता ? पर किया क्या जाए, यह खण्डता नैसर्गिक है । एक-एक मनुष्य शरीर, मानसिक चिन्तन, परिवार, जाति, समाज, प्रान्त और राष्ट्र आदि अनेक खण्डताओं में खण्डित है । बाहरी और भीतरी, चारों ओर के वातावरण ने उसे व्यक्तिवादी बना रखा है । समाजवाद के दीर्घकालीन कठोर प्रयत्नों के उपरान्त भी यह खण्डता की मनोवृत्ति अभी टूट नहीं पायी है । यदि रूसी समाजवाद अखण्डता की ओर गतिशील होता तो उसके पास अणु-अस्त्र नहीं होते । उसका सामुदायिकता का सिद्धात केवल अपने राष्ट्र की व्यवस्था पर है । खण्डता की मनोवृत्ति वहाँ भी उतनी है, जितनी अन्यत्र है । इसीलिए शस्त्रों की होड़ चल रही है।
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