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मुक्ति: समाज के धरातल पर
संदर्भ मुक्ति का
भगवान पार्श्वनाथ को लें तो २८०० वर्ष के लगभग और भगवान् महावीर से चलें तो २५०० वर्ष का जैन इतिहास होता है। उससे पहले का इतिहास रुकता है । जैन-दर्शन का भारतीय दर्शन के विकास में क्या योग है इस पर चिन्तन करें ।
वेदों में निर्वाण मोक्ष की बात नहीं मिलेगी। वहां केवल काम, अर्थ और धर्मइस त्रिवर्ग की बात आती है । काम और अर्थ के बाद जो धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है वह समाज की व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रयुक्त हुआ है । मनुस्मृति आदि में इसका इसी रूप में उल्लेख है । धर्माध्यक्ष, धर्मालय, धर्माधिराज आदि शब्दों का अनेक स्थानों पर व्यवस्था के लिए प्रयोग हुआ है । महाभारत के अन्त में स्वयं व्यासजी कहते हैं- " मैं हाथ ऊंचा उठाकर कह रहा हूं कि धर्म से अर्थ और काम मिलता है, फिर भी लोग धर्म नहीं करते हैं ।" क्या धर्म से अर्थ और काम मिलेगा ? धर्म से मोक्ष मिल सकता है, अर्थ और काम नहीं मिल सकते। यह धर्म की विसंगति है और आज भी ऐसी ही विसंगति चल रही है कि धर्म से लोग पुत्र, धन आदि पाना चाहते हैं । मोक्ष-धर्म और व्यवस्थाधर्म के सम्मिश्रण से लोग उलझ गए । कल्पद्रुम के रूप में धर्म का विवेचन करते हुए कहा गया है—“राज्य, सुन्दर स्त्री, सुन्दर लड़के, रूप, सरस कविता, स्वास्थ्य, कला, वाक्चातुर्य आदि सब कुछ धर्म से मिलेगा ।' यही कारण है कि धर्म त्रिवर्ग में भी आया और पुरुषार्थ चतुष्ट्ट्टी में भी आ गया है। दोनों को मिलाने से अनिष्ट हो गया । लोकमान्य तिलक ने गीता-रहस्य में लोक-धर्म और मोक्ष-धर्म का सुन्दर विवेचन किया है। आचार्य भिक्षु और तिलक के विचारों में अद्भुत सामंजस्य है ।
धर्म आत्मशुद्धि के लिए
जब निर्वाण की बात आयी तो धर्म का अर्थ-परिवर्तन हुआ । इसके पहले वैदिक चिन्तन में स्वर्ग की धारा थी । निर्वाण का सिद्धांत शक्तिशाली हुआ तब स्वर्गवादी धारा के साथ भी निर्वाण की धारा जुड़ गई । सूत्रकृतांग में महावीर की स्तुति में कहा गया है— 'निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र सर्वश्रेष्ठ हैं ।" इसका मतलब है कि वे स्वर्गवादी धारा में श्रेष्ठ नहीं थे । इसका अर्थ हुआ उस समय प्रवृत्ति और निवृत्ति दो धाराएं थीं । स्वर्गवादी धारा में पुण्य का बहुत महत्त्व था । निर्वाणवादी धारा में स्वर्ग और पुण्य दोनों को ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया गया। निर्वाणवाद में साफ कहा है- 'पुण्य, कीर्ति, पूजा, श्लाघा, प्रतिष्ठा, स्वर्ग आदि के लिए धर्म मत करो । आत्मशुद्धि और निर्वाण के लिए धर्म करो, क्योंकि पुण्य भी बन्धन है ।'
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अहिंसा का मूल्य
इस निर्वाणधारा ने मुक्ति का स्वर प्रबल किया । वह समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रचलित हो गया । अहिंसा का विकास मुक्ति के लक्ष्य से हुआ है। यदि मुक्ति का लक्ष्य
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