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हिन्दू राष्ट्रीयता का प्रतिनिधि है, जाति और धर्म नहीं
कुछ वर्ष पूर्व आचार्यश्री तुलसी ने कहा था- 'वे हिन्दू हैं, जो हिन्दुस्तान के नागरिक हैं ।' हिन्दू शब्द का अर्थ राष्ट्रीयता के संदर्भ में किया गया है। कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ जाति और धर्म के संदर्भ में किया है । राष्ट्रीयता के संदर्भ में किया जानेवाला अर्थ मूल भावना का स्पर्श करता है और प्राचीन है । जाति और धर्म के संदर्भ में किया जानेवाला 1 अर्थ पल्लवग्राही है और अर्वाचीन है ।
इन दोनों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना आवश्यक है । पहले हम दूसरे अर्थ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार करें । हिन्दुस्तान में हजारों वर्षों से चार वर्ण और अनेक जातियां रही हैं। 'मनुष्य जाति एक है' इस अभेदात्मक सत्ता के उपरान्त भी उसकी भेदात्मक सत्ता जीवित रही है, फलतः मनुष्य अनेक जातियों में विभक्त रहे
| सारी जातियों का समाहार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्णों में होता था । उनका विस्तार हजारों-हजारों जातियों में हुआ । उनमें हिन्दू नाम की कोई जाति नहीं थी । जाति के साथ हिन्दू शब्द का योग विदेशी आक्रमण की मध्यावधि में हुआ
है |
हिन्दुस्तानी धर्मों का समाहार वैदिक, जैन और बौद्ध - इन तीन धाराओं में होता था । उनका विस्तार सैंकड़ों शाखाओं-प्रशाखाओं में हुआ । उनमें हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं है । धर्म के साथ हिन्दू शब्द का योग बहुत अर्वाचीन है ।
भरत के नाम पर
अब हम हिन्दू शब्द के प्रथम अर्थ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार करें । हिन्दुस्तान का प्राचीन नाम भारतवर्ष था । भगवान् ऋषभ के पुत्र भरत के नाम से इस भूखंड का नाम भारतवर्ष पड़ा था । इसके साक्ष्य में श्रीमद्भागवत, अन्य अनेक पुराण तथा जैन साहित्य का उल्लेख किया जा सकता है । भारतवर्ष के निवासी लोगों का व्यापारिक, राजनयिक, सांस्कृतिक व धार्मिक सम्बन्ध विदेशों के साथ बहुत प्राचीनकाल से था । भारतवर्ष की सीमा पश्चिम में सिन्धु नदी, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी, उत्तः में हिमालय की दक्षिण श्रेणी और दक्षिण में समुद्र कर रहा था । सिन्धुमद से परवर्ती पार
वचन
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