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समस्या को देखना सीखें
सकता है जब हमारी निष्ठा अध्यात्म में हो यानी आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को हम स्वीकार करें। जो स्थिति को स्वीकार करता है, वह आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को अस्वीकार करता है और जो आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है, वह स्थिति को अस्वीकार करता है । वह कैसा अहिंसक और कैसा अध्यात्मवादी जो स्थिति को मान्यता दे, यह समझ में आने वाली बात है; पर आत्मा की स्वतंत्र सत्ता में निष्ठा रखने वाला उसे मान्य करे, यह समझ से परे है ।
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प्रतिकारात्मक शक्ति का अर्थ किसी की सत्ता या किसी के कर्म का प्रतिरोध करना नहीं है । उसका अर्थ है, स्वतंत्र कर्म-शक्ति का निर्माण । परिस्थिति से प्रभावित होकर हम जितना भी कर्म करते हैं, वह हमारा कर्म नहीं, किन्तु प्रतिकर्म होता है । हमारी अधिकांश प्रवृत्तियां क्रियात्मक नहीं किन्तु प्रतिक्रियात्मक ही होती हैं। हम बाह्य परिस्थिति से अप्रभावित रहकर कर्म करने लगें तो हममें प्रतिकारात्मक शक्ति का उदय स्वयं हो जाए ।
प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया
अंधेरे में भूत को स्वीकार करने से डर लगता है । गाली को स्वीकार करने से क्रोध उभरता है । अपनी हीनता के स्वीकार से ही दूसरे के प्रति जलन पैदा होती है ! यह दोष स्थिति में नहीं है, उसके स्वीकार में है । हम किसी दूसरे व्यक्ति के हस्तक्षेप को अपनी स्वतंत्र सत्ता में बाधा मानते हैं पर परिस्थिति के हस्तक्षेप को वैसा नहीं मानते । सचाई तो यह है कि वह हमारे कर्म में जितना हस्तक्षेप करती है, उतना कोई व्यक्ति कर ही नहीं सकता । चीन ने भारत पर आक्रमण किया, यह स्थिति का स्वीकार है । भारत यदि अपने स्वतंत्र कर्म में संलग्न होता, वर्तमान के प्रति नितांत जागरूक होता तो वह ऐसा कर ही नहीं पाता । भारत का सशस्त्र प्रत्याक्रमण भी स्थिति का स्वीकार है । यह कोई स्वतंत्र कर्म नहीं, केवल प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया है । हम देखते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है पर वास्तव में हमें कहना चाहिए कि प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया होती है । स्थिति से दबे हुए जगत् में शुद्ध क्रिया होती कहां है ? मैं अपनी श्लाघा सुनकर फूलता हूं और अपनी निन्दा सुनकर म्लान होता हूं, ये दोनों फूलना और म्लान होना स्वतंत्र कर्म नहीं हैं, किन्तु प्रतिकर्म हैं । मैं ऐसा करके अपनी स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं करता किन्तु परिस्थिति का खिलौना बनता हूं । इस दशा में मैं अहिंसक का नाम रखकर भी अहिंसक नहीं हो सकता हूं ।
हम लोग स्थिति के स्वीकार की दुनिया में खड़े होकर सशस्त्र प्रतिकार की बात सुनते हैं तब हमें वह असंभव लगती है । अपनी पूर्ण स्वतंत्रता की आस्था के जगत् में खड़े होकर हम देखें तो दिखेगी कि सुरक्षा वस्तु में नहीं, अपने में है, शक्ति वस्तु में नहीं, अपने में है । वस्तु में हम ही अपनी शक्ति को आरोपित करते हैं और हम स्वयं को उसके सामने शक्तिहीन अनुभव करते हैं ।
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