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मूल बीज है। डॉ. विडिश, ओल्डेनवर्ग और पिशेल के अनुमान के अनुसार सूक्त पहले गद्यात्मक और पद्यात्मक थे। ऐतरेयब्राह्मण का शुनःशेप - आख्यान इस प्रकार के अंश का प्रमाण है अतः इन्हीं से नाट्य की उत्पत्ति हुई होगी। किन्तु डा. कीथ ने इन दोनों मतों का खण्डन किया है। उनके अनुसार ऋग्वेद के इन सूक्तों का न तो गायन होता था और न अभिनय। क्योंकि गायन और अभिनय क्रमशः सामवेद और यजुर्वेद के तत्त्व हैं जिनमें संवाद-सूक्तों का सर्वथा अभाव है इनका मात्र शंसन होता था ।
वस्तुतः कथोपकथन के मूल बीज ये संवादसूक्त ही हैं जिनके द्वारा नाट्य में प्रयुक्त होने वाले संवादों का जन्म हुआ। अभिनयात्मकता का उदय तो यजुर्वेदीय यज्ञों में प्रयुक्त होने वाले अध्वर्यु नामक ऋत्विक् के क्रिया-कलापों से उद्भूत हुआ और गीत का संयोजन सामवेद के गानों से हुआ। शुक्लयजुर्वेद के तीसवें अध्याय में नाट्यविषयक विविध वस्तुओं का तथा वाद्ययन्त्रों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त गन्धर्व, अप्सराओं, वीणावादकों इत्यादि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इससे यह प्रतीत होता है कि यजुर्वेद-व द-काल में नाट्य के विभिन्न तत्त्वों नृत्य, गीत, अभिनय इत्यादि का प्रचार था किन्तु नाट्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। ब्राह्मणग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण-काल में नृत्य, गीत, वाद्य इत्यादि का स्थान कला के रूप में गृहीत हो चुका था किन्तु पराशरगृह्यसूत्र के अनुसार इन कलाओं का प्रयोग द्विजातियों के लिए निषिद्ध था । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैदिक भाषा में उपलब्ध तत्त्वों की नाट्यरचना के विशिष्ट स्वरूप को प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी ।
वेदोत्तरसाहित्य और नाट्य- वेदोत्तर साहित्य रामायण और महाभारत में नाट्य का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। रामायण के प्रारम्भ में ही अयोध्या - वर्णन के प्रसङ्ग में अभिनेताओं और वाराङ्गनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। राम के राज्याभिषेक के समय वहाँ नट, नर्तक, गायक इत्यादि उपस्थित थे और उनके कला-कौशल को सुनकर जनता आनन्दित भी हुई
नटनर्तकसङ्घानां गायकानां च गायताम् । यतः कर्णसुखा वाचः शुश्राव जनता ततः॥
महाभारत में भी नट, शैलूष इत्यादि नाट्यविषयक शब्दों का उल्लेख प्राप्त होता है । हरिवंशपुराण के 91-97 अध्याय में दैत्य वज्रनाभ के वध के लिए भगवान् कृष्ण के द्वारा यादवों के साथ कपट नट के रूप में रामायण के नाटक करने का उल्लेख
है
(1) द्रष्टव्य :- एच. बी. कीथः संस्कृत ड्रामा, पृष्ठ 15, 16
हुआ