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पड़ता।
2. श्रव्यकाव्य के माध्यम से शिक्षित समाज ही रसानुभूति कर सकता है किन्तु नाट्य के द्वारा सर्वसाधारण व्यक्ति भी आनन्दानुभूति कर सकता है। इसीलिए भरत ने नाट्य को सार्वजनिक मनोरञ्जन का साधन बताया है।
3. दृश्यकाव्य में दर्शक और नाट्यपात्रों में साक्षात् सम्बन्ध रहता है जिससे अनुभूति में तीव्रता आ जाती है। इसके विपरीत श्रव्यकाव्य में कवि के माध्यम से सम्बन्ध होता है, फलतः अनुभूति में तीव्रता नहीं आ पाती।
4. दृश्यकाव्य में सङ्गीत, वाद्य, दृश्यविधान आदि काव्यात्मक प्रभाव की वृद्धि में विशेष रूप से सहायक होते हैं और उसकी कथावस्तु कथोपकथन के सहारे आगे बढ़ती है जिससे सहृदय का मन उसमें लगा रहता है। इसके विपरीत श्रव्यकाव्य में अधिकांशतः वर्णन के द्वारा कथावस्तु आगे बढ़ती है जिससे पाठक के हृदय में कौतूहलवृत्ति जागृत नहीं होती, जो आनन्द की एक प्रमुख कड़ी है।
____5. यद्यपि दृश्यकाव्य का आनन्द नेत्र तथा श्रवण- दोनों के द्वारा प्राप्त होता है किन्तु वह दृश्यकाव्य प्रधानतया चक्षुरिन्द्रिय का विषय होता है जबकि श्रव्यकाव्य श्रवणेन्द्रिय का। प्रत्यक्ष देखी गयी वस्तु श्रुतिगोचर वस्तु की अपेक्षा अधिक प्रभावोत्पादक और रमणीय होती है। इसलिए कालिदास ने नाट्य को चाक्षुष यज्ञ कहा है- 'शान्तं क्रतुं चाक्षुषम्'(मालविकाग्निमित्र 1/4)।
6. श्रव्यकाव्य तथा दृश्यकाव्य दोनों में कान्तासम्मित उपदेश रहता है किन्तु क्रीडनीयक होने से नाट्य गुडप्रच्छन्नकटु औषध के समान चित्त को सन्मार्ग पर आरुढ़ होने की प्रेरणा देता है- 'इदमस्माकं गुडप्रच्छन्नकटु- औषधकल्पं चित्तविक्षेपमात्र-फलम्' (अभिनवभारती)।
__इन तथ्यों को ध्यान में रखने पर यह बात आपाततः स्पष्ट हो जाती है कि नाट्य अथवा रूपक काव्य के अन्य सभी भेदों से रमणीय होता है।
नाट्य का उद्भव और विकास
भारतीय नाट्यपरम्परा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से नाट्य की उत्पत्ति को स्वीकार करती है। उसके अनुसार देवताओं की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने दर्शनीय तथा श्रवणीय पञ्चमवेदरूप नाट्य की परिकल्पना किया और उसमें ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद से क्रमश: संवाद, गीत, अभिनय और रस को लेकर संयोजन किया। जैसा भरत ने कहा है
'जग्राह पाठमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च । यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ।