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त्रैलोक्यस्य सर्वस्य नाटयं भावानुकीर्तनम् ॥ (ना.शा. 1/107) न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला। नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृश्यते॥ (ना.शा.1/116)
नाट्य तो प्राणिमात्र के विविध भावों तथा अवस्थाओं के चित्रण से युक्त और लोकवृत्त के अनुकरण से संवलित ऐसी काव्य-विधा है जो श्रमात तथा शोकार्त सभी लोगों के लिए विश्रान्तिजनक, हितकारक तथा उपदेशप्रद है
विश्रान्तिजननं लोके नाट्यमेतद भविष्यति। विनोदजननं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति॥ (ना.शा. प्रथम अध्याय)
3. सत्यं शिवं सुन्दरं का संयोग- कोई ऐसा भाव अथवा अवस्था नहीं है जिसका नाट्य में चित्रण न हुआ हो। ऐसा कोई लोकवृत्त नहीं है जो उपेक्षित हो। इसमें तो उत्तम, मध्यम, अधम- सभी प्रकार के लोगों का चित्रण होता है। यथार्थ होने से यह सत्य है, हितोपदेशजनक होने से यह शिव है और विश्रान्तिजनक होने तथा विनोदजनक क्रीडनीयक होने से सुन्दर भी है। ‘सत्यं शिवं सुन्दरं' का ऐसा मनोहर संयोग काव्य की अन्य किसी विधा में सम्भव नहीं होता। (द्रष्टव्य ना. शा. 1/112-115)।
4. रसानुभूति की सुगमता- सहृदय के हृदय का आह्लाद अर्थात् सहृदय के हृदय में रसानुभूति जगाना ही काव्य का प्रमुख उद्देश्य होता है। रसानुभूति का मूलकारण स्थायीभाव का विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारीभाव के साथ संयोग है“विभावानुभावव्याभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः"। दृश्यकाव्य में रङ्गमञ्च पर उपस्थित पात्रों की वेषभूषा, उनके आकार, उनकी भावभङ्गिमा, कथोपकथन इत्यादि से एक सजीव, मनोहर तथा हृदयग्राही बिम्ब उपस्थित हो जाता है जिससे सहृदय-जन के रसानुभूति का मार्ग निर्बाध ही नहीं प्रत्युत सुगम भी हो जाता है। इसी अभिप्राय को दृष्टि में रखकर 'नाटकान्तं कवित्वम्' कहा गया है। वस्तुतः काव्य का चरम लक्ष्य नाट्य से ही प्राप्त हो सकता है।
श्रव्यकाव्य की अपेक्षा दृश्यकाव्य की श्रेष्ठता- श्रव्यकाव्य की अपेक्षा दृश्यकाव्य की उत्कृष्टता इन कारणों से होती है
1. श्रव्यकाव्य में सहृदय श्रवण अथवा पठन के द्वारा रसानुभूति की चेष्टा करता है। इसमें उसे अपनी कल्पनाशक्ति के द्वारा तत्सम्बन्धित समस्त बिम्ब की कल्पना करनी पड़ती है और शब्द ही मानसिक चित्र उपस्थित करते हैं। फलस्वरूप अनुभूति में उतनी तीव्रता, सजीवता तथा मनोहरता नहीं आ पाती जितनी अपेक्षित होती है। इसके विपरीत दृश्यकाव्य में अभिनेताओं द्वारा किये जाने वाले चार प्रकार के अभिनयों से वर्ण्य का प्रत्यक्ष बिम्ब उपस्थित हो जाता है। फलतः सहृदय को कल्पना के अनावश्यक प्रपञ्च में नहीं जाना