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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बन पाता है । सकलकीति ने इसे बड़े सुन्दर रीति से प्रतिपादित किया है। इस चरित्र की रचना कर्मफल सिद्धान्त को पुरुषार्थ से अधिक विश्वसनीय सिद्ध करने के लिये की गई है। मानव का ही क्या विश्व के सभी जीवधारियों का सारा व्यवहार उसके द्वारा उपाजिप्त पाप पुण्य पर प्राधारित है। उसके सामने पुरुषार्थ कुछ भी नहीं कर सकता ! काव्य पठनीय है।
१७. शान्तिनाप चरित्र-शान्तिनाथ १६ वें तीर्थंकर थे। तीर्थकर के साथ २ वे कामदेव एवं चक्रवर्ती भी थे । उनके जीवन की विशेषताएं बतलाने के लिये इस काव्य की रचना को गयी है । काव्य में १६ अधिकार है तथा ३४७५ लोक संख्या प्रमाण है। इस काध्य को महाकाव्य की सजा मिल सकती है। भाषा अलकारिक एवं वर्णन प्रभावमय है। प्रारम्भ में कवि ने शृंगार-रस से ओत प्रोत काव्य की रचना क्यों नहीं करनी चाहिए-इस पर अच्छा प्रकाश डाला है । काव्य सुन्दर एवं पटनीय है।
१८. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार--- इस कृति में श्रावकों के प्राचार-धर्म का वर्णन है। थावका चार २४ परिच्छेदों में विभत है, जिसमें प्राचार शास्त्र पर विस्तृत विवेचन किया गया है । मट्टारक सकल कीत्ति स्वयं मुनि मो थे-इसलिए उनसे श्रद्धालु भक्त आचार-प्रम के विषय में विभिन्न प्रश्न प्रस्तुत करते होंगे-इसलिए उम सबके समाधान के लिए कवि ने इस ग्रन्थ निर्माण ही किया गया। माषा एवं दौली की दृष्टि से रचना सुन्दर एवं सुरक्षित है । कृति में रचनाकाल एवं रचनास्थान नहीं दिया गया है।
१९. पुराणसार संग्रहः-प्रस्तुत पुराण संग्रह में ६ तीर्थंकरों के चरित्रों का संग्रह है और ये तीयंकर हैं-आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पास्वनाथ एवं महायौर-बद्ध मान । भारतीय मानपीट की ओर से 'पुराणसार संग्रह प्रकाशित हो चुका है। प्रत्येक तीर्थकर का चरित अलग २ सर्गों में विभक्त हैं जो निम्न प्रकार हैं
प्रादिनाथ चरित ५ मग चन्द्रप्रम चरित शान्तिनाथ चरित नेमिनाथ चरित पार्श्वनाथ चरित ५ सर्ग
महावीर चरित ५ सर्ग २०, व्रतकपाकोष:--'प्रतकथाकोष' को एक हस्तलिखित प्रति जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । इसमें विभिन्न यतों पर प्राधारित