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सुत्रवलि' ( रचनाकाल सं० १५१८ १
बोली
तेह श्री पद्मसेन पट्टोवरण संसारसमुद्र तारपतरण सन्मार्ग्रचरण पंचेन्द्रिय विकिरण एकासीमइ पाटि श्री भुवनकीर्ति राउलजपना पूरा जिशि श्री भुवनकीतिर ढोली नवर मध्य शुलतान श्री वडा महिमुदसाह समातर आपण विद्यानि प्रमाणि निराधार पालखी चलावी । सुलतारण महिमुदसाह सह यइ भान दी | तेह्र नयर मध्य पत्रालबन बांधी पंच मिथ्यात्ववादी वृदराज सभी समस्त लोकविद्यमान जीता। जिनधर्म प्रगट कीधु । अमर जस इणी परि लीघु । श्रनि देह श्री गुरु तरिष पाटि श्री भावसेन अनि श्री वासचसेन हुया । जे श्री बासवन अलमलिन गात्र चारित्रमात्र नित्य पक्षोपवास अनि अंतराइ निसंयोग मासोपवास इसा तपस्वी इरिए का लिहूया न कोसि । प्रनि तेति नामित पीनस्पति समस्त कुष्टादिक व्याधि जाति । ते गुरुंना गुण केतला एक बोली ।। हृवि श्री मासेन देव तरिश पाटि श्री रत्नकीर्ति उपन्ना ।
बंद त्रिवलय
श्रीमंदीच्छे पट्टे श्रीभावसेगस्य । नयाा गारी उपन्नो रमणकीत्तियां ||१
उपनु कति सोहि निम्मल वित्त | विस्यात क्षिति मति ॥ जोतु जीतु रे मवन बल संयु न दाहीछलि जिनवर धम्म बली बुरा-धरो ।।
जाणि जारिए रे गोयम स्वामि तम नासि जेह नामि । रहा उत्तम ठामि मंडोवरा ||
छांड्य छां रे दुर्जय क्रोध अभिनवू एह योध | पंचेही की रोत्र एकक्षणं ||२||
उद्धरण ते पाव नरयती भांजी वाट मांडीला नवा अवाट विवह पार ||
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१. आचार्य सोमकीति को इस कृति का परिचय देखिये पृष्ठ संख्या-४३ पर देखिये ।