Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur

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Page 295
________________ वीर बिलास फाग सर केतकी मालती माल गोजास सु चंपक चंग । बोलसरी वेल्य पाउल परिमल मळया भुंग ॥३५॥ बहु विध भोग पुरंदर सुन्दर साहिजि स्वरूप । चतुर परिण चालि जान सुभान मली बहु भूप ॥३६।। दुख दालित दुरि गया आपयाँ दान उदार । सजन सहु संतोषीया पोखीया बहु परिवार ॥३७॥ बंधी जन घरद बोलि घणा जिव तथा विविध विसाल । वरवाजाय बाय लगाय रस गाय गुण माल ।।३८।। इन्द्र इन्द्राणी उवारणा जुछणां करि धरणेस । नव रसि नाचि विलासणी मुहासशि भरे सेस ।।२९॥ धवल मंगल सोहामणां भामगा लेव नर नारि । लूणा उतारे कुमारी स मारी सहु सार सएिगा ॥४०॥ जयतू जीवित नन्द जिगणंद जगंद जगीस । युवती जगती यम जपतो कुलवती दिय प्राशाश ।।४।। इम प्रभु परणे वासांत तोरणि जाइ जाम । जान जारणी जन आवती नरपती उग्रसेन ताम ।।४२।। संघरी साहामो संभ्रमकरी प्राणद भरी अणमेवि । मझया महा जनमन रंगे अंगे आलिंगन लेवि ॥४३॥ युगति जोइ जानीवासि उल्लासि उतारी जान । प्रासन सयन भोजन विधि मन सिविदोधांमान ॥४४!! नयरि मझारि सिरपगारी सूनारी ताहि मुविचार । तहतिब हासव मांडीया छड़ीया अवर व्यापार ॥४५॥ ध्वजि तोरण सोहि घरि घरि घरि घरिवानरवाक । फूल पगर भरला परि घरि घरि घरि झाकममाल ॥४६॥ परि धरि कुकृम चंदन तणां छादणां छड़ा देवराथि । धरि धरि मणि मुगता फल बाउल याक पुराय ॥४॥ मम नयां नाटिक रि धरि धरि परि हरष न मारि । गिरिनारिपूरि केरी सुन्दरी रंग मरि मंगल गाइ ॥४८॥

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