Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 299
________________ म.कुमुदचंद्र के पद कृपण भयो कछु दान न थीनों । दिन दिन दाम मिलायो । जब जोवन जंजाल पयो तब । परत्रिया तनुचित लायो । मैं तो०१३|| अंत समै कोउ संग न आवत | झूलहि पाप लगायो॥ 'कुमुदचन्द्र' कहे चूक परी मोही। प्रभु पद जस नहीं गायो । मैं तो०॥४|| [४] राग-सारंग नाथ अनाथन कू कछु दीजे । विरद संभारी धारी हरू मन तें, काहे न जग जस लीजे ।। नाथ॥१॥ तुही निवाज कियो हूं मानष, गुरण प्रवगुण न गणीजे । व्याल बाल प्रतिपाल सत्रिषतरु, सो नहीं आप हणीजे ।। नाथ०॥२॥ में तो सोई जो ता दीन हतो, जा दिन को न छूईज । जो तुम जानत और भयो है, बाघि बाजार बेचीजे ॥ नाथ ॥३॥ मेरे तो जीवन धन बस, तमहि नाथ तिहारे जीजे । कहत 'कुमुदचंद्र' चरण शरण मोहि, जे भावे सो कीजे ॥ नाथYI [५] राग-सारंग सखी री अबतो रह्यो नहि जात । प्राणनाथ की प्रीत न विसरत । दरण छग छीजत गात सखी०॥१॥ नहि न भूख नहीं तिसु लागत । घरहि घरहि मुरमात ।। मन तो उरझो रहो मोहन सु। सेवन ही सुरमात सखो०१२।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322