Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 297
________________ भ० रत्नकीत्ति के कुछ पद २७१ चंद्रवदनी पोबारती डारती, मंडन हार उरनीर । 'रतनकी पत्ति' प ग वेगगी, राहुल नित कियो घोर ॥सखी०॥३॥ [४] राग-देशाख सखि को मिलावो नेम नरिदा । ता बिन तन मन योवन रजत है, चार चंदन अस चंदा सखि०।१।। कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुःसह मदन को फंदा । तात मात अरु सजनी रजनी, वे प्रति दुख को कंदा सखि०।१२॥ तुम तो शंकर सुख के दाता, करम काट किये मंदा । 'रतनकीरति' प्रभु परम दयालु, सेवत अमर नरिंदा सखि ॥३॥ [५] राग-मल्हार सखी री सावनि घटाई सतावे । रिमि झिमि बून्द बदरिया बरसत, नेम नेरे नहिं आवे सखी ॥१॥ कूजत कीर कोकिला बोलत, पपीया वचन न भावे । दादुर मोर घोर घन गरजत, इन्द्र धनुष डरावे ||ससी०||२|| लेख लिखु री गुपति वचन को, जदुपति कु जु सुनाये ।। 'रतनफीरति' प्रभु अव निरोर भयो, अपनी वचन विसरावे ।।सखी॥३॥ [६] राग-केदार कहां थे मंडन करू फजरा नन भरु, होऊ रे वैरागन नेम की चेरी । शीश न मेजन देउ मांग मोती न लेउ, अब पोरहु तेरे गुननी बेरी ॥१॥ काहं सू बोल्यो न भावे, जीया में जू ऐसी भावे । नहीं गये तात मात न मेरी ।। आलो को कह्मों न करे, बावरी सी होइ फिरे ।। चकित कुरंगिनो यु सर घेरी ॥२॥ नितुर न होइ ए लाल, वलिहूं नैन विशाल । कैसे री तस दयाल भले भलेरी ॥ 'रतनकीरति' प्रभु तुम बिना रामुल । यों उदास गृहे क्यु रहेरो ।।३।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322