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राजस्थान के जैन संत : यकिन एवं कृतित्व
भवीयग हृदम कमल तू सूर,जाई दुःख तुझ नामि दूर। धर्मसागर तु सोहि चंद, ज्ञान का इव वरसि इंदु ॥६४॥ तुझ स्वामी सेनि एक घड़ी, नरम पंथि तस भोगल जड़ी। वाइ यागि जिम बादल जाह, तिम तुझ नामि पाप पुलाइ ॥६५||
तोरा गुण नाथ अनंता कह्या, त्रिभुवन माहि घणा गहि गह्मा । ते सुर म बाच्या नवि जाउ, अल्प बुधिमि किम कहा ॥६५।।
मनाथ' नी अनुमति नहीं, बल केशव व बिठासही। धर्मादेश कसा जिन तणा, स्वचर अमर नर हरख्या घरणा ।।६६।। एके दीक्षा निरमल धरी, एके राग रोष परिहरी । एके व्रत वारि सम चरो, भव सायर इम के तरी ||६८।।
दुहा
प्रस्तावलही जिरावर प्रति पूछि हलधर बात । देवे वासी द्वारिका ते तु अतिहि विख्यात ।।६६।। निहुँ बंड केरु राजीउ सुरनर सेवि जास । सोह नगरी नि कुष्णनु कोणी परि होसि नास ||७|| सीरी वाणी संभली बोलि नेमि रसाल । पूरव भवि अक्षर लिखा ते किम थाइ बाल ॥७१॥
चुपई
दीपायन मुनिवर जे सार, ते करसि नगरी संधार। मद्य भांड जे नामि कही, तेह थकी बली चलमि सही ॥७२॥ पौरलोक सथि जलसि जिसि, ये बंधव निकलसुतिसि । ताह सहोदर अराकुमार, तेहनि हाथि मरि मोरार ॥७३॥
शर वरस पूरि जे तलि, ए कारण होसि ते ताल । जिपवर वारणी प्रमीय समान, सुरणीय कुमार तष चास्यु रानि ॥७४।। कृष्ण द्वीपायन जे रविराय, मुकसावी नियर खंड जाइ । बार संबछर पूरा थाह, नगर द्वारिका आ चुराइ ॥५! ए संसार प्रसार ज कही, धन मोवन से घिरता नहीं । कुटंब सरीर सहू पंपाल, ममता छोड़ी धर्म संभाल ।।७६॥