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वारडोली के संत कुमुदचंद्र
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विकट लोभ तें कपट कूट करी, निपट विषय लपटायो। विटल कुटिल शक संगति बैठो, साधु निकट विवटामो ।।
मैं तो....||२॥ कृपण भयो कछु दान न दीनों, दिन दिन दाम मिलायो। जब जोवन जंजाल पङयो तब, पर त्रिया तनु चितलायो ।।
में तो....॥३॥ अन्त समय कोउ संग न यायत, भूहि पाप लगायो। कुमुवचन्द्र कहे चूक परी मोही, प्रभु पद जस नहीं गायो ।।
में तो... ॥४॥
पर राग-सारंग
सखी री अब तो रह्यो नहि जात । प्राणनाथ की प्रीति न विसरत, क्षण क्षण छीजत गात ।।
सखी .. 1180 नहि न भूख नहिं तिसु लागत, धरहि घरहि मुरझात । मनतो उरमी रह्यो मोहन सु, सेवन ही सुरशास"
सखी ...1111 नाहिने नोंद परती निसियामर, होत विसरत प्रात। चन्दन चन्द्र सजल नलिनीदल, मन्द मास्त न सुहात ॥
सखी .. ॥३॥ गृह प्रांगन देख्यो नहीं भावत, दीनभई बिललात । विरही बाउरी फिरत गिरि-गिरि, लोकन तें न लजात ।।
सखी ||४|| पीउ दिन पलक कल नहीं जीउकून रुचित रासिक गुबात । 'कुमुवश्चन्द' प्रभु सरस दरस जयन चपल ललचात ॥
सखी० ॥५॥
ध्यक्तित्व--
संत कुमुदचन्द्र संवत् १६५६ तक भट्टारक पद पर रहे। इतने लम्बे समय में इन्होंने देश में अनेक स्थानों पर बिहार किया और जन-साधारण को धर्म एवं अध्यात्म का पाठ पढाया । ये अपने समय के प्रसाधारण सन्त थे। उनकी गुजरात