________________
भट्टारक नरेन्द्रकीत्ति
१७ वी शतामिद में राजस्थान में 'भामेर-राज्य' का महत्त्व बढ़ रहा था। प्रामेर के शासकों का मुगल बादशाहों से घनिष्ट सम्बन्ध के कारण यहां अपेक्षाकृत शान्ति थी। इसके अतिरिक्त भामेर के शासन में भी जैन दीवानों का प्रमुख हाथ था। वहां जैनों की अच्छी बस्ती थी और पुरातत्व एवं कला की दृष्टि से भी आमेर एवं सांगानेर के मन्दिर राजस्थान-भर में प्रसिद्धि पा चुके थे। इसलिए देहली के भट्टारकों ने भी अपनी गादी को दिल्ली से आमेर स्थानान्तरित करना उचित समझा और इसमें प्रमुख माग लिया 'म० देवेन्द्रकोत्ति' ने; जिनका पट्टाभिषेक संवत् १६६२ में चाटम में गा था ! इसके पहनात तो मामेर गानेर. नास और टोडारायसिंह प्रादि नगरों के प्रदेश इन भद्रारकों की गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र बन गये। इन सन्तों की कृपा से यहां संस्कृत एवं हिन्दी-ग्रन्थों का पठन-पाठन ही प्रारम्भ नहीं हुअा, किन्तु इन मापात्रों में ग्रन्थ रचना भी होने लगी और पामेर, सांगानेर, टोड़ारायसिंह और फिर जयपुर में विद्वानों की मानों एक कतार ही खड़ी होगयी। १७ वीं शताब्दी तक प्रायः सभी विद्वान् 'सन्त' हुमा करते थे, लेकिन १८ वीं श० से गृहस्थ मी साहित्य-निर्माता बन गये। अजयराज पाटशी, मुसालबन्दकाला, जोधराज गोटीका, दौलतराम कासलीवाल, महा पं० टोडरमल जी व जयचन्दजी छाबड़ा जैसे उच्चस्तरीय विद्वानों को जन्म देने का गर्व इसी भूमि को है ।
'आमेर-शास्त्र-भण्डार' जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्य-संग्रहालय की स्थापना एवं उस में अपभ्रश, सस्कृत एवं हिन्दी-ग्रन्थों की प्राचीनतम प्रतिलिपियों का संग्रह इन्हीं सन्तों की देन है । प्रामेर शास्त्र भण्डार में अपभ्रंश का जो महत्वपूर्ण संग्रह है, वैसा संग्रह नागौर के मट्टारकीय शास्त्र-भण्डार को छोड़कर राजस्थान के किसी भी ग्रन्थ-संग्रहालय में नहीं है । वास्तव में इन सन्तों ने अपने जीवन का लक्ष्य आत्मविकास की भोर निहिन किया। उनका यह लक्ष्य साहित्य-संग्रह एवं उसके प्रचार की ओर भी था । इन्हीं सन्तों की दूरदर्शिता के कारण देश का प्रमुखमा साहित्य नष्ट होने से बच सका । अब यहां आमेर सादी से सम्बन्धित तीम सन्नों का परिचय प्रस्तुप्त किया जा रहा है.. ... ... . . ! .', १. भट्टारक मारेन्द्रकोलि.. ... .. ..... .. . - नरेन्द्रकीति अपने समय के जबरदस्त भट्टारक थे। ये शुद्ध 'बीस पथ' को मानने वाले 4 खण्डवान श्रावक और सिंगाणी' इमेको मात्र था। एक