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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रहा था। पार्थ को सपस्या करते हुए देखकर उससे पूर्व मव का और स्मरण हो पाया और उसने बदला लेने की दृष्टि से मसलाधार वर्षा प्रारम्भ कर दी। वे सर्पसपिरणों, जिन्हें बाल्यावस्था में पावकुमार ने बचाने का प्रयत्न किया था, स्वर्ग में देव-देवी हो पायेगे । उन्होंने इस पर्व पर उपसर्ग देखा, तव ध्यानस्थ पाश्वनाथ पर सपं का रूप धारण कर अपने फण फैला दिये । कवि ने इसका संक्षिष्त वर्णन किया किया है
वन में जी आई धो जिमा (ध्यान)। थम्यो जी गगनि सुर तरणो जी विमान ।। पूरव रिपु अधिक तहां कोपयो । करे जी उपसर्ग जिरण नै बढ्न आइ ।। की वृष्टि तहां प्रति करें। तही कामनी सहित आयो अहिराइ ॥श्री०॥१५३।।
बेगि टाल्या उपसर्ग अस (जान)1 जिण जी ने उपनो केवलज्ञान ॥
२१. हर्षकीर्ति
हर्षकीप्ति १७ वीं शताब्दि के कवि थे। राजस्थान इनका प्रमुख क्षेत्र था। इस प्रदेश में स्थान स्थान पर बिहार नारके साहित्यिक एव प्राकृतिक जाति उत्पन्न किया करते थे । हिन्दी के ये अच्छे विद्वान थे। अब तक इनकी चतुर्गति वेलि, नेमिनाथ राजुल गीत, नेमीबरगीत, मोरडा, फर्महिंडोलना, की भाषा छहलेश्याकयित्त, आदि कितनी ही रचनायें उपलब्ध हो चुकी है। इन सभी कृतियों राजस्थानी है । इनमें काव्यगत सभी गुण विद्यमान है। ये कविवर चनारसीदास के समकालीन थे । चतुगंति वेलि को इन्होंने संवत् १६५३ में समाप्त किया था। कवि की कृतियां राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में अच्छी संख्या में मिलती हैं जो इनकी लोकाप्रियता का घोतक है !
२२. भ. सकलभूषण
सफलभूषण भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य थे तथा भट्टारक सुमतिकीत्ति के गुरु प्राता थे। इन्होंने संवत् १६२७ में उपदेशरत्नमाला की रचना की थी जो संस्कृत की अच्छी रचना मानी जाती है । मट्टारक शुभचन्द्र को इन्होंने पान्हवपुराण एवं करकंडुचरित्र की रचना में पूर्ण सहयोग दिया था जिसका शुभचन्द्र ने उक्त