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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
फुलि माव्या मध्यात न कीजह संका सवि टाली पालीजि । जे समकित पालि नरनार, से निश्चि तिरसि संसार ॥११॥ ये मिथ्यात घणेरु फरेसि, से संसार घणु दूबेसि ।
--वस्तु--
जीव राखु जीव राखु काम छह भेद । असोय लक्ष चिहूँ अगली एक चित्त परणाम प्राणीह । चालत दिसत सूयतां जीव जंतु सठाण जारणीय । जे मर मन कोमल करी, पालि हया अपार । सार सौख सवि मोगयी, ते तिरसि संसार ।।
--ढाल बीजीजीब दया दृह पालीइए, मन कोमल कीजि । आप सरीखा जीव सबे, मन माहि घरीजड ।) माहण धोयण काज सवे, पाणी गली फरु । प्रण गल नीर न जडीलीहए दातण मन मोड ।। गाढि घाई न मारीइए सवि चुपद जाणु । कणसह का मन वगण करु, मन जिम वा आगु ।। पसूय गाडू नवि गांधीहए, मवि छेदि करीजि । भामउ पहिरु लोम करी, मवि भार करीजि ॥ लहिरिण देवि काज करी, लोपरिण म करा । च्यार हाथ जोईय भूमि, तम्हे जाउ पाच ॥ फामु प्राहार जामिलु, मन प्राफरणी रांधू । अंगीठु मन तम्हे करु मन बायुध सांषु ।। लाकड न विकयावीइए नालाम चडा । संगा तणा वीवाह सही, म करु म करा ।। लोह मधु विष लाल तोर विषसा छोड । मिण महर्जा कंद मूल मोखण मत वावु ॥ कंटोल साबू पान पाहि घाणी नवि की जा । खटकसाल हथीयार आगि मांग्या नपि दीजि ।।