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सारसीखामणिराम .
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--अथ ढाल चुथी-- योवन रे कुटंब हरिधि लक्ष्मीय चंचल जाणीइए। जीव हरे सरण न कोई धर्म मा सोई आदि । संसार रे काल बनादि जीव बागि घर फिरयुए। एकलु रे आवि जाइ कर्म आठे गलि धरयुए। काय थोरे जू जूउ होइ कुटंब परिवारि वेगलुए। शरीर रे नरग मंडार मूबीय आसि एकलु ए। खिमा रे खडग घरेवि क्रोध विरी संघारीइए। माहव रे पालीद सार मान पापी पलं टालीइए। सरलु रे बित्तकरेवि माया सवि दूरि फरुए। संतोष रे आयुध लेवि लोभविरी संघारीइए । वेराग रे पालीइ सार, राग टालु सकलकोत्ति कहिए । जे भरिगए रास ज "सार सीखा मणि" पठते लहिए ।
इति सीखामणिरास समाप्त: