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अवशिष्ट संह
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ग्रन्थों में वर्णन किया है। अभी तक इन्होंने हिन्दी में क्या क्या रचनायें लिखी थी, इसका कोई उल्लेख नहीं मिला था, लेकिन प्रामेर गास्त्र मण्डार, जयपुर के एक गुटके में इनको लघु रचना 'सुदर्शन गीत,' 'नारी गीत' एवं एना पद उपलब्ध हृये हैं। सुदर्शन गीन में सेठ सुदर्शन के चरित्र की प्रशंसा का गई है। नारी गीत में स्त्रो जाति से संसार में विशेष अनुराग नहीं करने का परामर्श दिया गया है। सकलभूषण की भापा पर गुजराती का प्रभाव है। रचनाए अच्छी हैं एवं प्रथम बार हिन्दी जगत के सामने आ रही है ।
२३. मुनि राजचन्द्र
राजचन्द्र मुनि थे लेकिन मे किसी भट्टारक के शिष्य थे अथवा स्वतन्त्र रूप से विहार करते थे इसकी अभी कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। ये १७वीं शताब्दि के विद्वान थे । इनकी अभी तक एक रचना 'चंपावती सील कल्याणक' ही उपलब्ध हुई है जो संवत् १६८४ में समाप्त हुई थी। इस कृति की एक प्रति दि० जन खण्डेलवाल मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। रचना में १३० पद्य हैं । इसके अन्तिम दो पद्य निम्न प्रकार है--
सुविचार धरी तप करि, ते संसार समुद्र उत्तरि । नरनारी सांभल जे रास, से सुख पामि स्वर्ग निबास ॥१२६।।
संवत सोल चुरासीयि एह, करो प्रबन्ध श्रावण यदि तेह । तेरस दिन प्रादित्य सुद्ध वेलावही, मुनि राजचंद्र काहि हरखज सहि ॥१३॥
इति चंपावती सील कल्याणक समाप्त ।।
२४. ३० धर्मसामर
ये भअभयचन्द्र (द्वितीय) के शिष्य थे तथा कवि के साथ साथ संगीतज्ञ भी थे। अपने गुरू के साथ रहते और बिहार के अवसर पर उनका विभिन्न गीतों के द्वारा प्रशंसा एवं स्तवन किया करते। अब तक इनके ११ से अधिक गीत उपलब्ध हो चुके हैं। जो मुख्यतः नेमिनाथ एवं भ• अभय चन्द्र के स्तवन में लिखे गये हैं। नेमि एवं राजुल के गीतों में राजुल के विरह एवं सुन्दरता का अच्छा वर्णन क्रिया है । एक उदाहरण देखिये--
दूखडा लोउ रे ताहरा नामनां, बलि बलि लागु छुपायन रे । बोली पोरे मुझने नेमजी, निठुर न यइये यादव रामनरे ।।१।।